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इस तरह २३ वी कोई स्वतंत्र ही आत्मा ने अपना विकास साधा और वे पार्श्वनाथ नाम से तीर्थंकर भगवान बने । तथा नयसार नामका कोई स्वतंत्र ही अन्य जीव २७ जन्मों की साधना करके तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करके २७ वें जन्म में तीर्थंकर बनकर भगवान महावीर के नाम से विश्वविख्यात बना । इससे स्वतंत्र रूप से प्रत्येक तीर्थंकर भगवन्तों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
यह वर्तमान चौबीशी के तीर्थंकर भगवानों की बात है । ऐसे ही आगे के आगामी काल में भी २४ तीर्थंकर बननेवाले ही हैं। वर्तमान चौबीशी के २४ भगवान सभी अन्त में निर्वाण पाकर मोक्ष में जाकर मुक्त सिद्ध बन चुके हैं। इसलिए वे कोइ वापिस संसार में लौटते ही नहीं है। इसके कारण में कहते हैं कि
दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। '
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ।। जैसे किसी बीज के जल जाने से उसमें से अंकुरोत्पत्ति नहीं होती है । उसे बोने से या जलसिंचनादि करते रहने पर भी उसमें से अंकुर नहीं फूटते हैं । न ही उसमें से तना, शाखा, फल-पत्र-पुष्पादि बनते हैं। इसी तरह कर्मरूपी बीज के जल जाने से, (निर्जरित = सर्वथा क्षय हो जाने से) भव = संसाररूप अंकुरोत्पत्ति भी नहीं होती है । अर्थात् कर्मबीज सर्वथा संपूर्ण जल जाने से पुनः संसार में जन्मादि नहीं होता है। यह तात्पर्यार्थ है। मुख्य जीव ही कारणरूप होता है । यहाँ संसार में जन्म-मरण के लिए भी मूलभूत बीजभूत कारण कर्म है । कर्म के कारण ही संसार बनता है, बढता है, बिगडता भी है और चलता भी रहता है । बस, कारणभूत इस कर्म के न रहने से कार्यरूप यह संसार भी नहीं रहता है । फिर बनने-बिगडने आदि का कोई सवाल ही नहीं रहता है।
भगवान बनने की प्रक्रिया
समस्त विश्व भर में एकमात्र जैन धर्म ने ही भगवान बनने की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से दर्शायी है । पूरी तरह से साफ बताई है । १४ गुणस्थानों के सोपान क्रमशः चढते-चढते ऊपर ही ऊपर आगे बढते जाना सबके लिए अनिवार्य है । आखिर मोक्ष का मार्ग सबके । लिए यही एक मात्र समान रूप से है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा