SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के सोपान भी होते हैं । प्रथम गढ पर देवता लोग अपने विमानों को संकुचित करके रखते हैं। दूसरा गढ स्वर्ण का बनाते हैं । यह सुवर्ण का रत्नजडित श्रेष्ठ प्रकार का बनाते हैं। इसमें भी पूर्ववत् चारों दिशाओं में ४ प्रवेशद्वार तथा चढने के सोपान होते हैं प्रथम के ऊपर दूसरा तथा उसके ऊपर तीसरा गढ रत्नों का सुंदर बनाते हैं । दूसरे गढ पर... सभी तिर्यंच पशु-पक्षी प्रभु देशना को श्रवण करने बैठते हैं। तीसरे रत्नजडित गढ पर केन्द्र में विशाल अशोक वृक्ष होता है । उसकी शीतल छाया सब पर समान रूप से रहती है । यहाँ बैठने से सबका शोक-खेद-विषाद-दुःख दूर हो जाता है अतः इसे अशोक वृक्ष कहते हैं । तीसरे रत्नजडित गढ के भी चारों दिशाओं में चारों तरफ प्रवेशद्वार एवं चढने के सोपान होते हैं । इस पर तीर्थंकर भगवान मुख्य पूर्व दिशा में स्फटिक के सुंदर सिंहासन पर बिराजमान होते हैं । तथा शेष ३ दिशाओं में देवता प्रतिबिम्ब दिखाई दे वैसी व्यवस्था करते हैं । अर्थात् पूर्व दिशा में बिराजमान प्रभु का प्रतिबिम्ब अन्य ३ उत्तर-दक्षिण-पश्चिम दिशा में भी समान रूप से दिखाई दे ऐसी व्यवस्था देवता करते हैं, जिससे समवसरण में बिराजमान होनेवाली सभी बारह पर्षदा के जीवों का सबको प्रभु के दर्शन हो सके । सबको लगे किः .. मैं भी भगवान के सामने ही बैठा हूँ, और भगवान भी मेरे सामने ही हैं और मुझे उद्दिष्ट करके ही कह रहे हैं । बारह पर्षदा में भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष, तथा वैमानिक इन चारों निकाय के इन्द्रादि देवता, तथा उनकी देवियाँ इस तरह ४ और + ४ = ८ तथा यहाँ इस धरती के साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ के चारों वर्ग मिलाकर ४ + ४ + ४ = १२ इस तरह बारह पर्षदा में सभी परमात्मा की देशना श्रवण करने चारों मुख्य दिशाओं पूर्वादि से प्रवेश करके चारों विदिशाओं के कोने में योग मुद्रा में अंजलीबद्ध एवं पंक्तिबद्ध बैठते हैं । देवियाँ खडी रहती हैं । इस तरह बारह पर्षदा के रूप में सुव्यवस्थित रूप से देशना श्रवण करते हैं। ऐसा अनोखा अद्भुत समवसरण होता है । अष्ट महाप्रातिहार्य तथा ३४ अतिशयों से युक्त परमात्मा सुशोभित होते हैं । तिजय पहुत्त स्तोत्र में स्पष्ट लिखा है चउतिस अइसयजुआ, अट्ठमहापाडिहेरकयसोहा। तित्थयरा गयमोहा, झाएअव्वा पयत्तेणं । जो ३४ अतिशयों से युक्त हो, तथा अष्ट महाप्रातिहार्य से सुशोभित हो एवं राग-द्वेष-मोह जिनका सर्वथा नष्ट हो चुका हो ऐसे वीतरागी तीर्थंकर भगवन्तों का प्रयत्नपूर्वक ध्यान करना चाहिए। . १२३४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy