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अरिहन्त बननेवाला तीर्थंकर का जीव जो कि पूर्व में छट्ठे गुणस्थान से साधु - मुनि - त्यागी बन चुका है वह क्षपक श्रेणी पर आरूढ होकर कर्मों का क्षय करके यहाँ १३ वे गुणस्थान पर आता है। वैसे तो जो भी जीव यहाँ आते हैं वे सभी क्षपक श्रेणी की एक ही समान प्रक्रिया में से गुजरते हैं । विशेषता सिर्फ इतनी ही रहती है कि... उन्होंने पूर्व तीसरे भव से ही तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति उपार्जित कर रखी है, इसलिए वे जब १३ वे अयोगी केवली गुणस्थान पर पहुँच जाते हैं तब उस तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्तम पुण्यप्रकृति का रसोदय होता है। इसके उदय में आने से ... वे तीर्थंकर अरिहंत भगवान बनते हैं । जगत्पूज्य - विश्ववंदनीय परमात्मा बनते हैं । सर्वज्ञ भगवान उसमें बैठकर देशना देते हैं। वैसे सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता तो इस १३ वे गुणस्थान की सामान्य उपलब्धि है । सर्वसाधारण प्राप्ति है । परन्तु तीर्थंकर नाम की विशेषता अलग रहती है। सभी जीवों में यह विशेषता समानरूप से रहनी ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं । बहुत विरले ही जीव तीर्थंकर बननेवाले होते हैं ।
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तीर्थंकर के लिए समवसरण -
समान रूप
वैसे १३ वे गुणस्थान पर ७ प्रकार के जीव आते हैं तथा वे सभी केवलज्ञानकेवलदर्शन आदि गुणों के धारक होते हैं ज्ञान सामान्य केवली का तथा विशिष्ट तीर्थंकर सबका एक सरीखा - समान रूपसे होता है । ज्ञान में रत्तीभर भी कम - ज्यादापना नहीं होता है । फिर भी तीर्थंकर बननेवाले की विशिष्ट कक्षा की तीर्थंकर नामकर्म की जो श्रेष्ठ पुण्यप्रकृति होती है उसके
उदय में आने से देवता उनके लिए ३ गढवाला समवसरण बनाते हैं । यह गोलाकार, समचौरस, तथा अष्टकोणाकार तीनों प्रकार का बनाते हैं। इसमें ३ प्राकार (गढ) होते हैं । प्रथम गढ को रजत गढ कहते हैं जो चांदी-रजत का बना हुआ होता है। इसके चारों तरफ पूर्व-पश्चिम - उत्तर - दक्षिण चारों दिशा में प्रवेशद्वार होते हैं तथा चढने की सीढी
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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