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________________ २) इसी तरह दूसरा भव्यत्वपने का है । और ३) तीसरा अभव्यत्वपने का है। ये दोनों भी उत्पत्तिशील, नाशस्वभावी या परिवर्तनशील नहीं हैं । अर्थात् भव्यपना भी जीव में पहले से ही रहता है । नया उत्पन्न नहीं होता है । और नष्ट भी नहीं होता है । इनके लिए कोई कर्म कारणभूत भी नहीं होता है। इसलिए भव्य-अभव्य कोई नए बनते भी नहीं हैं और पुराने कोई मिटते भी नहीं हैं। ये परिवर्तनशील भी नहीं हैं। अर्थात् अभवी कभी भवी नहीं बनता है और भवी कभी अभवी भी नहीं बन सकता है । अनन्तकाल में भी यह कभी संभव नहीं है । बस, यह अकारणरूप अर्थात् जिसके पीछे कोई कारण ही नहीं है ऐसा पारिणामिक भाव है । न कोई समर्थ देवी देवता-ईश्वर या तीर्थंकर भगवान भी किसी भव्य जीव को अभव्य बना सकते हैं और न ही कभी किसी अभव्य को भव्य के रूप में बदल सकते हैं । भूतकाल के अनन्त वर्षों में भी कभी एक भी दृष्टान्त न तो हुआ है और भविष्य में न ही कभी होगा। एक भी अभव्य जीव कभी मोक्ष में गया ही नहीं है और न ही कभी जाएगा। अभवी अनादि-अनन्त काल से इसी संसार में रहा है और रहेगा। जिसका भूतकाल भी अनन्त बीता है और भविष्य काल भी अनन्त ही बीतना निश्चित है। अतः अभव्य जातिभव्य (दुर्भव्यों की दृष्टि से यह संसार अनादि, अनन्तकालीन, शाश्वत है। भूतकाल भी आदिरहित अनादि एवं अनन्त है। तथा भविष्यकाल भी अन्तरहित अनन्त है। इस तरह यह एक ऐसा पारिणामिक भाव है कि जिसके पीछे कोई कारण ही नहीं रहता है तथा कोई परिवर्तन ही संभव नहीं है। यह द्रव्यगत पारिणामिक भाव है, वैसे ही द्रव्याश्रित गुण की दृष्टि से जीव का त्रिकाल नित्य-शाश्वत होना एक अखण्ड-असंख्य प्रदेशी द्रव्यरूप होना, अस्तित्वपना, अन्यत्वपना, कर्तृत्वपना आदि भाव भी है । जीवगत जीवत्व का अस्तिभावरूप चैतन्यपना, भव्यत्व अर्थात् मोक्षगमन-योग्यत्वभाव, तथा अभव्य अर्थात् मोक्षगमन योग्यता का अभाव–अर्थात् अयोग्यता यह पारिणामिक भाव रूप से निष्कारण रूप से स्वाभाविक ही है। १३ वे गुणस्थान पर उपलब्धि क्षायिक भाव से जिन नौं भावों की प्राप्ति होती है वे सभी १३ वे गुणस्थान व १२ वे गुणस्थान पर प्राप्त होते हैं । इनमें मोहनीय १ घाती कर्म का क्षय १२ वे गुणस्थान पर संपूर्णरूप से हो जाता है। अतः क्षीण मोह गुणस्थान पर क्षायिक भाव की कक्षा का सम्यक्त्व जिसे क्षायिक सम्यक्त्व (क्षायिक सम्यग् दर्शन) कहते हैं, वह प्राप्त होता है। १२२८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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