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________________ तथा दूसरा गुण क्षायिक चारित्र की भी उपलब्धि होती है । क्षपक श्रेणीवाले साधक की प्रबल तीव्रतर साधना की यह सिद्धि है। जो एक बार प्राप्त हो जाने पर पुनः कदापि नष्ट नहीं होते हैं । वापिस चले नहीं जाते हैं, वह क्षायिक की कक्षा की उपलब्धि है । अब १२ वे क्षीण मोह गुणस्थान के अंतर्मुहूर्त काल के अन्तिम समय में जब .. मोहनीय कर्म सिवाय शेष ३ कर्म १) ज्ञानावरणीय, २) दर्शनावरणीय तथा ३) अन्तराय कर्मों का क्रमशः क्षय होता है । तब उनके जडमूल से संपूर्ण क्षय होने के कारण जिन अनन्त ज्ञानादि की उपलब्धि होती है वह भी संपूर्ण क्षायिक भाव की है । इसलिए केवलज्ञान की जो उपलब्धि है वह क्षायिक ज्ञान की उपलब्धि है । इसी तरह केवल दर्शन भी क्षायिक दर्शन है । क्षय शब्द नाश अर्थ में है । क्षय से बना क्षायिक अर्थात् जिस कर्मावरण से आत्मा का जो गुण ढका था उस कर्म के संपूर्ण क्षय हो जाने से उन आत्म गुणों का पूर्ण प्रगटीकरण ही क्षायिक भाव का प्रगटीकरण है । क्षायिक भाव में कर्मों का सर्वांशिक संपूर्ण क्षय है । अब अंशमात्र भी कर्म शेष नहीं बचते हैं । अतः अंशमात्र भी आत्मगुण आवृत्त नहीं रहता है । अतः उसका पूर्ण-संपूर्ण सर्वाशिक प्रगटीकरण होता है । जैसे बादलों से आवृत्त सूर्य बादलों के संपूर्ण हट जाने से पूर्ण रूप से प्रकाशमान होता है । ठीक उसी तरह आत्मा के भी सभी गुण चरमकक्षा की पूर्णता को प्राप्त होते हैं। शेष अन्य भावों से जो संपूर्णरूप की सर्वांशिक गुणों की उपलब्धि नहीं हुई थी वह क्षायिक भाव से सर्वांशिक संपूर्ण गुणस्थिति प्रगट होती है । इसलिए औदयिक औपशमिक एवं क्षायोपशमिक भाव से जिन आत्मगुणों का प्रगटीकरण होता है वह अपूर्ण होता है । जबकि यहाँ क्षायिक भाव से वे ही गुण चरमकक्षा की पूर्णता में प्रगट होते हैं । 1 C औपशमिक भाव कर्माणु औदयिक भाव -- भाव क्षायोपशमिक आत्मा क्षय + उपशम आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना आवृत्त अंश १२२९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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