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________________ ही है । उन-उन कर्मों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय के अभाव से और देशघाती कर्म के स्पर्धकों के उदय से क्षायोपशमिक भाव प्रगट होता है । १) मति, २) श्रुत, ३) अवधि, और ४) मनःपर्यवज्ञान ये ४ ज्ञान और मति, श्रुत, अवधि ये ३ अज्ञान (विकृत ज्ञान-विपरीत ज्ञान), चक्षु, अचक्षु, अवधि ये ३ दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये ५ लब्धियाँ सम्यक्त्व, सर्वविरति चारित्र, देशविरति चारित्र, इस तरह ये कुल १८ भेद क्षायोपशमिक भाव के हैं । मिश्रित भाव के हैं। ४) औदयिक भाव उदय से औदयिक भाव कहलाता है । आठों कर्मों में से किस कर्म का कब कितना उदय रहता है ? उस उदय के आधार पर जो जो भावादि प्रगट हुए हैं, होते हैं, उसे औदयिक भाव कहते हैं । इनमें ४ गति, ४ कषाय, ३ वेद, मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, असिद्धत्व तथा ६ लेश्याएँ ये कुल मिलाकर २१ भेद औदयिक भाव के होते हैं। ५) पारिणामिक भाव पाँच प्रकार के भावों में ५ वाँ भाव पारिणामिक भाव है । जिसका कभी परिवर्तन और अन्य रूप में परिणमन हो ही नहीं सकता है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं । ये ३ प्रकार का होता है । १) जीवत्व अर्थात् चेतनत्व, आत्मत्व यह परिणामिक भाव है । इसी कारण से अनन्त काल में भी जीव कभी अजीव होता नहीं है और अजीव कभी जीव के रूप में भी परिणमन होता ही नहीं है। इसलिए अजीव-जड-पुद्गल-परमाणु या किसी के भी मिश्रण-संमिश्रण से यह जीव बन गया या उत्पन्न हो गया है, हो जाता है, ऐसा कहना मूर्खता सिद्ध होती है। चाहे यह बात विज्ञानवादी कहे या अन्य कोई भी कहे तो यह अज्ञानवश कथन है । यह अनुत्पन्न अविनाशी है अनन्तकालीन है । इसी कारण जीव अनन्त काल में कभी भी अजीव बनता ही नहीं है, और अनन्त काल में भी कभी अजीव जीव के रूप में परिणमन हो ही नहीं सकता है । जीव अनन्त काल तक भी जीव के रूप में चेतन ही रहता है । और अजीव अजीव ही रहता है । बनना बिगडना या बदलने का कोई प्रश्न नहीं रहता है। यह प्रथम पारिणामिक भाव है। आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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