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ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥
२-५॥
गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्त्रयेकैकैकष
जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥ २७ ॥
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दूसरे अध्याय में पू. वाचकमुख्यजी ने पाँचों भावों का अद्भुत सुंदर वर्णन किया है । उसमें ५ भाव इस प्रकार दर्शाए हैं
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पांच प्रकार के भाव
भेदाः ।। २-६ ।।
औपशमिक क्षायिक
मिश्र
औदयिक
पारिणामिक
१) औपशमिक भाव
उपशम शब्द से तद्धि से औपशमिक शब्द बनता है। आत्मा पर लगे हुए कर्मों का सतत - निरंतर अखण्ड रूप से उदय होता ही या रहता ही है ऐसा नियम नहीं है । कर्म सत्ता में पंडे हुए होने के बावजूद भी कुछ काल तक उदय नहीं भी होता है । कभी कभी जीव के शुभ अध्यवसायों से भी मोहनीय कर्म की उदय थोडे काल तक स्थगित रह जाता है, जैसे कि पानी में कचरा नीचे बैठ जाता है, ठीक वैसा ही कर्म सत्ता में होते हुए भी शान्त हो जाय और उदय न हो तब उसे उपशमन की प्रक्रिया कहते हैं । ऐसे कर्मों के उपशमन (दब जाने) से आत्मा में जो भाव प्रगट होते हैं उसे औपशमिक भाव कहते हैं । इसके २ भेद हैं- सम्यक्त्व और चारित्र । १) उपशम सम्यक्तव और २) उपशम चारित्र ये २ भेद
हैं ।
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८ कर्मों में से उपशमन सिर्फ मोहनीय कर्म का ही होता है । मोहनीय कर्म के १) दर्शन मोहनीय और २) चारित्र मोहनीय ये २ भेद हैं । अनन्तानुबंधी ४ कषाय तथा दर्शनमोहनीय की ३ इन ७ प्रकृतियों के उपशमन से प्रथम जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं । चारित्र मोहनीय दूसरे विभाग की २१ कर्मप्रकृतियों का उपशमन होने से औपशमिक चारित्र प्रगट होता है । बस, अन्तर्मुहूर्त काल तक इन दोनों
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आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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