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________________ क्या केवलज्ञानादि पुण्योदयजन्य है ? पुण्य से क्या प्राप्त होता है, हो सकता है ? और पाप कर्म के उदय से क्या-क्या प्राप्त होता है ? इसके विभाजन के समय इनका विचार कर चुके हैं। याद रखिए, पुण्य क्या है? यह शुभ कक्षा की कर्मप्रकृति है । और पाप अशुभ कक्षा की । पाप 1 दुःखरूप - दुःखात्मक फलदायी है। अतः पाप के उदय के कारण कालान्तर में भवान्तर (जन्मान्तर) में दुःख, कष्ट, नीच गोत्र, रोगादि की प्राप्ति होती है । घाती कर्म के चारों विभागों 1 सभी कर्मप्रकृतियाँ अशुभ पाप की ही हैं। और अघाती कर्म में भी पाप की प्रकृतियां ज्यादा है, इस कुल मिलाकर ८२ प्रकृतियां अशुभ पाप की है। जबकि घाती कर्म के विभाग चारों में कोई पुण्य की शुभ प्रकृति ही नहीं है । जो भी है वे सभी एक मात्र पाप कर्म की ही है । तथा अघाती कर्म के चारों विभागों में सभी प्रकृतियाँ पुण्य की ही है ऐसा नहीं हैं, परन्तु पाप की अशुभ प्रकृतियों का भी विभाग है । इसलिए अघाती कर्म में शुभ और अशुभ के दोनों विभाग हैं, लेकिन घाती में शुभ-अशुभ के दो विभाग नहीं है । 1 इसलिए घाती कर्म की सभी प्रकृतियों में पुण्य का जब कोई विभाग ही नहीं है, तो फिर पुण्य का उदय होना, और पुण्य के उदय से केवलज्ञान प्राप्त होने का कोई सवाल ही खडा नहीं होता है । क्योंकि केवलज्ञानादि आत्मा पर लगे हुए ज्ञानावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से प्राप्त होता है । और ज्ञानावरणीय कर्म का संपूर्ण क्षय होना यह कोई पुण्य का उदय ही नहीं है । पुण्य के उदय से कर्म का क्षय हो यह सिद्धान्त ही गलत है । वैसा होता ही नहीं है । अतः ज्ञान-दर्शन भले ही अधूरे कम भी प्राप्त होंगे या अधिक भी प्राप्त होंगे तो ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ही प्राप्त होंगे, परन्तु पुण्योदय से नहीं । पुण्य का कोई सवाल ही बीच में नहीं आता है । संपूर्ण ज्ञान - केवलज्ञान क्षायिक भाव से ही प्राप्त होता है । अर्थात् ज्ञानावरणीयादि के संपूर्ण - सर्वथा क्षय से ही प्राप्त होगा, न कि पुण्य से 1 तत्त्वार्थ सूत्र में ५ भाव बताए हैं ५ भाव १२२४ औपशमिक क्षायिक भावौ मिश्र जीवस्य स्वतत्त्वमौदायिक पारिणामिकौ च ।। २-१ ।। द्विनवाऽष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ।। २-२ ।। सम्यक्त्वचारित्रे ॥ २-३॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ २-४ ॥ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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