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कहा है, तदनुसार इन चारों अघाती कर्मों का कार्य देहलक्षी - बाहरी है । ये शरीर, गति, जाती, अंगोपांग, कुल–जाती, गोत्र, सुख-शाता, तथा चारों गतियों में एक शरीर में कितने वर्षों तक जीना आदि का आयुष्य प्रदान करते हैं । इस तरह इन चारों से जो भी शुभ-अशुभ गति–जाति गोत्रादि प्राप्त होगा तदनुसार चेतनात्मा संसार में वैसी बनकर जीएगी। लेकिन इससे आत्मा के ज्ञानादि को कोई फरक नहीं पड़ता है। शरीर भले ही काला कलूटा हो या बावना कुब्ज हो, या घर–कुल गोत्र चाहे उच्च हो चाहे नीच हो, रोगी हो या निरोगी हो, या फिर आयुष्य चाहे जितना कम ज्यादा हो लेकिन इससे आत्मा के ज्ञानादि में कोई फरक नहीं पड़ता है। शास्त्रों में दृष्टान्त है कि... हरिकेशी और मेतारज मनि जैसे जो कि ... हरिजन के नीच कुल में पैदा हुए थे फिर भी दीक्षा लेकर केवलज्ञानादि पा गए । मरुदेवा माता या चन्दनबाला मृगावती आदि स्त्री देहधारी होते हुए भी केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गए। कपिल ब्राह्मण पुत्र होते हुए भी बाल्यवय में केवलज्ञान पाकर मुक्त हुए । अझ्मुता मुनि बालसाधु बाल्यकाल में ही केवलज्ञान पाकर मुक्त हुएं । इस तरह कई दृष्टान्त हैं।
अतः इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा के ज्ञानादि गुणों के पूर्ण या अपूर्ण रूप से प्रगट होने में अघाती कर्मजन्य शरीर, गति, जाति आदि कोई भी बाधक या अवरोधक नहीं बन सकते हैं। अघाती में शुभाशुभ विचार- अघाती कर्मों के ४ विभागवाले चारों कर्मों में शुभ अशुभ दोनों का विभाग है। शुभ का पुण्य प्रकृति कहा है और अशुभ को पापप्रकृति कहा है । उदाहरणार्थ नीच गोत्र की कर्मप्रकृति अशुभ पापकारी है, जबकि उच्च गोत्र की शुभ पुण्यात्मक है । वैसे गतियों में, जातियों में, शरीरों में भी विभाजन है । इन्द्रियों की न्यूनाधिक प्राप्ति में भी है । रोगी
और निरोगी अवस्थारूप शाता-अशाता में भी एक शाता की प्रकृति शुभ पुण्यात्मक है। जबकि अशाता की अशुभ पापात्मक है। इसी तरह आयुष्य में भी दोनों विभाग है। नरकायुष्य अशुभ पापात्मक है, जबकि स्वर्गायुष्य शुभ पुण्यात्मक है । इस तरह अघाती कर्मों के चारों भेदों में शुभ पुण्यात्मक प्रकृतियाँ एवं अशुभ पापात्मक प्रकृतियाँ दोनों का विभाजन है। परन्तु घाती कर्म के चारों भेदों में कोई शुभ-पुण्यात्मक प्रकृति नहीं है। क्योंकि इसमें सभी पापकारी अशुभ ही अशुभ प्रकृति है । आत्मा का ज्ञान ढक जाय, दब जाय और कोई जीव अज्ञानी बने, इसे क्या शुभ-पुण्य कहेंगे? जी नहीं? और दूसरी तरफ यदि किसी को केवलज्ञान प्राप्त हो जाय तो क्या उसे शुभ पुण्य का उदय कहेंगे? जी नहीं!
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा मे परमात्मा बनना
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