SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रहण जैसी स्थिति में दिखाई देती है । आत्मा के आधे भाग में एक तरफ अघाती कर्म ४ आत्मा पर लगे हुए हैं जिससे आत्मा काली मैली गन्दी लगती है । और आधे भाग में से ४ घाती कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से अत्यन्त शुद्ध प्रकाशवान् बन जाती है । अब आप ही सोचिए, आधे भाग में दोपहर के चमकते तेजस्वी सूर्य के समान प्रकाशमान और आधे भाग में अमावस्या की मध्यरात्रि के समान श्याम अन्धेरा ऐसी स्थिति में आत्मा इस १३ वे गुणस्थान पर होती है। जैसे मील से ब्लीच किया हुआ नया कपडा और आधे भाग में कालारंग (या मैल) लगा हुआ है तथा आधे भाग में बिल्कुल जगमगाती चमक वाली सफेदी हो ऐसी स्थिति ४ कर्मों के क्षय और ४ कर्मों के उदयवाली स्थिति कैसी बनती है? यह स्थिति कैसी लगती है ? (यह मात्र समझने के लिए आधा-आधा भाग करके समझाया गया है । वास्तव में आत्मा में आधा–आधा भाग जैसा कुछ होता ही नहीं है।) चारों गुणों की परिपूर्णता ये जो चारों गुण प्रगट हुए हैं वे पूर्ण-संपूर्ण रूप में प्रगट हुए हैं। ये ही आत्मा के मुख्य गुण हैं । ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि ये भेदक गुण हैं। अजीव से आत्मा को सर्वथा भिन्न–अलग करनेवाले ये भेदक गुण हैं । इन गुणों के कारण आत्मा पहले से ही अजीव की समानता-तुलना में नहीं आई। सदा काल ही अपना अस्तित्व आत्मा ने स्वतंत्र अलग ही रखा है । और आज तो ये गुण अपनी पूर्णता के शिखर पर पहुँच कर प्रगट हुए हैं। इसलिए अंशमात्र भी कर्म को कालिमा नहीं है । अतः ज्ञान-दर्शनादि जो भी गुण प्रगट हुए हैं वे सब पूर्ण-संपूर्ण परिपूर्ण कक्षा के हैं । इसमें अंशमात्र भी अपूर्णता-अधूरापन नहीं है । इन गुणों ने आत्मा को पूर्ण गुणवान-गुणी बनाया है। ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि मुख्य एवं मूलभूत गुण हैं । इनके पूर्ण स्वरूप में प्रगट हो जाने के बाद अघाती कर्मों से दबे हुए गुणों के प्रगट न हो सकने पर कोई तकलीफ नहीं पडती । अनामी-अरूपी, अगुरु-लघु, अनन्त सुख तथा अक्षय स्थिति गुण के प्रगट न भी हो सकने के कारण कोई चिन्ता नहीं है । तकलीफ नहीं है । क्योंकि अघाती कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करनेवाले नहीं हैं। अघाती कर्म का आवरण ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि आत्मगुणों पर नहीं है। इसलिए अघाती कर्मों से ज्ञानादि गुण नहीं दबते हैं । वे तो पूर्ण रूप में प्रगट ही हैं । सिर्फ आत्मा के अनामी, अरूपी, अगुरु-लघ, अनन्त सुख और अक्षय स्थिति ये चारों गुण आच्छादित होते हैं । जैसा कि मैंने पहले भी १२२२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy