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ज्ञानादि गुण नहीं रहते हैं। वे तो एक मात्र आत्मा में ही संनिविष्ट हैं। इसी तरह दान-लाभ-भोगादि के गुण जो अन्तराय कर्म से आवृत्त हो वे भी किसी शरीर के अंग में नहीं रहते हैं। उदारता, कृपणता के गुण-दोष शरीर के नहीं हैं कि शल्य चिकित्सा करके किसी की कृपणता निकाल दी जाय और उदारता का प्रत्यारोपण हो सके । जी नहीं ... इसलिए यह भी आत्माश्रित गुण है । जो इन चारों प्रकार के घाती कर्मों के आवरण से दब जाते हैं । ढक जाते हैं । इसलिए घाती कर्म आत्मगुणघातक है । अतः घाती कर्मों का ही प्रथम क्षय करने का लक्ष साधक का रहता है । (यद्यपि पहले घाती-अघाती कर्मों का वर्णन कर चुके हैं, तथापि पुनः स्मृति को सुदृढ करने के हेतु से यहाँ पुनर्लेखन किया है।) इन ४ घाती कर्मों में भी सबसे ज्यादा खतरनाक मोहनीय कर्म है जो मुख्य राजा बन बैठा है। सब कर्मों की लगाम अपने हाथ में रखता है । अतः पहले राजा को जीत लेने से बाद में शेष अन्य कर्मों को जीतना बहुत आसान हो जाता है। घाती कर्मों के क्षय का क्रम
“मोहक्षयाद् ज्ञान-दर्शना-वरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में... केवलज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया बताते हुए इस सूत्र में निर्देश करते हैं कि.....मोहनीय कर्म के क्षय होने के बाद तथा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय
और अन्तराय कर्म इन तीनों के क्षय के पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । इस सूत्र में दो बार पाँचवी अपादान की विभक्ति का प्रयोग सूत्रकार महर्षि ने किया है। अपादान विभक्ति वियोगसूचक है । जिसका इस सूत्र में २ बार प्रयोग किया है । दूसरी तरफ यदि ३ नामों का एक साथ समास हो सकता है तो १ नाम और मिलाकर सूत्रीकरण की प्रक्रिया में अच्छी तरह समास हो सकता था। एक ही सूत्र बनाते हुए दो बार विभक्ति का प्रयोग करके पदच्छेद किया है। पू. उमास्वातिजी महान पूर्वधर महापुरुष थे। और ऐसे पूर्वज्ञ महात्मा सूत्रकार बनकर जब सूत्र रचना करते हैं तब इस गुणस्थान की प्रक्रिया को अच्छी तरह ध्यान में रखते हुए...... प्रथम 'मोहक्षयात्' यहाँ अपादान विभक्ति दी है। पहले मोहनीय कर्म का संपूर्ण क्षय हो जाने की प्रक्रिया को सूचित की है। यह कर्म वैसे भी अकेला ही जाता है। पहले इसका क्षय हो जाता है फिर ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मों का क्षय अच्छी तरह होता है । पहले मोहनीय का क्षय हो जाने से वीतरागता प्राप्त हो जाती है। और बाद में ज्ञानावरणीय आदि तीनों का एक साथ क्षय होने पर केवलज्ञानादि गुणों की प्राप्ति होती है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा