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ज्ञानावरणीय कर्म की ५, + दर्शनावरणीय की ८ + मोहनीय कर्म की २८ तथा अन्तराय कर्म की ५ = ४७ कर्मप्रकृतियाँ है । इनमें से सम्यक्त्व मोहनीय एवं मिश्र मोहनीय के सिवाय की ४७-२ = ४५ कर्मप्रकृतियाँ घाती कर्म की है। इस तरह ४ घाती कर्म की ४५ अवान्तर प्रकृतियाँ है।
दूसरा विभाग अघाती कर्म का है। इसमें नाम कर्म की १०३, + गोत्र कर्म की २, + वेदनीय कर्म की २, तथा आयुष्य कर्म की ४ इस तरह १११ प्रकृतियाँ अघाती कर्म की हैं । आत्मा के मूलभूत गुणों का घात करनेवाली कर्मप्रकृतियों को घातीकर्म कहते हैं। इसलिए पहले घाती कर्म का क्षय करना चाहिए। जिससे दबे हुए गुणों का पुनः उदय हो सके । प्रगटीकरण हो जाय । अघाती कर्म की ज्यादा चिंता नहीं है । घाती कर्मों का क्षय हो जाने के पश्चात् अघाती कर्म तो ज्यादा रहनेवाला ही नहीं है । घाती कर्म आत्मगुणघातक है अतः यह प्रधान रूप से आत्मलक्षी है । जबकि दूसरा अघाती कर्म देहकार्यवान् ज्यादा है। नाम कर्म का मुख्य कार्य शरीर रचना करने का है । गोत्र कर्म ऊँचे नीचे घराने में जन्म देनेवाला है । तथा वेदनीय कर्म शाता-अशाता का कारक है । रोगी निरोगी शरीर की अवस्था का कारक है। तथा आयुष्यकर्म नामकर्म की गति के आधार पर देव-मनुष्य-नरक-तिर्यंच की चारों गति में जन्म धारण करते समय वहाँ कितने वर्षों के काल तक रहना? इसलिए आयुष्य कर्म मात्र निर्धारित काल की अवधि प्रदान करनेवाला
इस तरह अघाती कर्म का सीधा एवं प्रधान कार्य शरीर केन्द्रित है। जबकि घाती कर्म का अंशमात्र भी कार्य शरीरसंबंधी नहीं है । उदा० ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान गुण को ढकता है । आच्छादित करता है । ज्ञान कोई शरीर का भाग नहीं है । शरीर के किसी भी भाग में अंगोपांगादि में कहीं भी ज्ञान नहीं रहता है । ज्ञान एकमात्र आत्मा में ही रहता है। आत्मा का ही गुण है । इसी तरह दर्शन भी है। तथा दया-करुणा, समता–क्षमा, नम्रता, सरलता, संतोष, आदि गुण शरीर में कहीं नहीं रहते हैं । ये सब गुण आत्मा में ही रहते हैं। अगर शरीर के किसी भी अंग में क्षमा-समता-करुणादि गुण रहते होते तो, या ज्ञानादि भी खोपडी या किसी भी अंग में रहते होते तो... किडनी आदि की... तरह दूसरे का अंग किसी के शरीर में अंग का प्रत्यारोपण कर देते । और किसी की दया-करुणा किसी जीव में आ जाती । इस तरह किसी का ज्ञान किसी में आ जाता । वर्तमान विकसते हुए विज्ञान के युग में बहुत कुछ बदला जा चुका होता। लेकिन शरीर के किसी भी अंग में
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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