SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्त्ये दृष्टिचतुष्कं च, दशकं ज्ञानविजयोः। . क्षपयित्वा मुनिः क्षीणमोहः स्यात्केवलात्मकः ।। ८१ ॥ “अन्त्ये” अर्थात् अन्तिम समय में.. क्षीणमोहनीय १२ वे गुणस्थान के अन्तिम समय में दर्शनावरणीय कर्म की ४, फिर ज्ञानावरणीय कर्म की ५, तथा अन्तराय कर्म की ५, इस क्रम से तथा इस तरह १४ कर्मप्रकृतियों का क्षय जडमूल से करता है। ४ दर्शनावरणीय + ५ ज्ञानावरणीय+ ५ अन्तराय तथा + १ उच्चगोत्र,१ यशः नामकर्म = इन १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध विच्छेद १० वे सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान पर ही हो चुका था। अतः अब यहाँ पुनः उनका बन्ध नहीं होता है। इसलिए अब सिर्फ १ शातावेदनीय कर्म का ही बंध करता है। उदय की दृष्टि से विचार करने पर ... संज्वलन लोभ०, ऋषभनाराच और. नाराचसंघयण इन ३ कर्मप्रकृतियों का उदय बिच्छेद हो जाने से ५७ प्रकृतियों के उदयवाला होता है । तथा संज्वलन लोभ की सत्ता का भी १० वे गुणस्थान के अन्त में क्षय हो जाने से १२ वे क्षीण मोहनीय गुणस्थान पर साधक १०१ कर्मप्रकृतियों की सत्तावाला होता ऐसा साधक महात्मा चारों प्रकार के घाती कर्म की समस्त प्रकृतियों का क्षय कर लेता है । इसलिए सीधा ही केवली बनता है । १२ वे गुणस्थान के अन्तिम समय में १४ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है इसलिए १२ वे गुणस्थान पर केवली नहीं कहा जाएगा। क्षय करना यह क्रिया है और परिणामस्वरूप १३ वे गुण की प्राप्ति वहाँ केवलज्ञान की प्राप्ति यह फल है। इसलिए यहाँ का काल तथा कार्य दोनों पूरे करके साधक १३ वे गुणस्थान पर आरूढ होकर वहाँ केवली बनता है। ८ कर्मों में २ विभाजन ज्ञानावरणाय आयुष्य NEPAL अघाती घाती ROMAN Lak १२१८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy