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एक समझदार सज्जन ने .. इस प्रकार उहापोह द्वारा तर्क-वितर्क से विचार करके सोचा कि अरे ! यह निरर्थक परिश्रम है छुडाने का । यह बल का काम नहीं है यह तो अक्कल का काम है । उस समझदार सज्जन ने ... सोचकर जोर से एक चाटा कसकर मुंह पर लगाया... कि .. एक सेकंड में चमत्कार हो गया। उस युवक के हाथ खम्भे से छूटकर अपने मुँह पर लग गए। सभी समझ गए कि आखिर किसने किसको पकड़ा है ? आखिर युवक का सारा भेद खुल गया ।
ठीक इसी तरह आत्मा और कर्म के बीच का नाटक है । खम्भे की तरह कर्म भी जड है। और युवक की तरह आत्मा चेतन है। जैसे युवक ने खम्भे को पकड़ रखा है, ठीक उसी तरह चेतन आत्मा ने कर्म बांध रखे हैं। अब इस बंधन को अच्छी तरह समझना चाहिए कि ... यह बंधन मेरी तरफ से है न कि कर्म की तरफ से । इसलिए मुझे ही छोडना चाहिए। कर्म मुझे अनन्त काल में भी नहीं छोडेगा । मैं चेतनात्मा हूँ । अनन्त शक्ति का मालिक मैं हूँ। और ये कर्म तो पुद्गल - परमाणु मात्र हैं। बसं, जिस दिन इस कर्म को कमजोर समझ ले और अपनी चेतना को अनन्त शक्तिशाली समझ ले उस दिन बेडा पार हो जाएगा। लेकिन आज दिन तक विपरीत ही मान बैठा है । मिथ्यात्व के गाढ संस्कारवश अपने आपको अर्थात् अपनी आत्मा को सही अर्थ में पहचान ही नहीं पाया। और इसी मिथ्यात्व की गाढता के कारण कर्म को अपने संसार का - दुःख का सही कारण होते हुए भी समझ नहीं पाता है ... अपने दुःख के कारण रूप में ईश्वर को मानना यह कितनी बड़ी अज्ञानता है? कितना खतरनाक घातक विकृतज्ञान - मिथ्याज्ञान है ? अब सबसे पहले इस मिथ्यात्व को दूर करना ही चाहिए।
१२ वे गुणस्थान के अन्तिम समय में ३ कर्मों का क्षय
“उपान्त्य” अर्थात् अन्तिम के पहले (आगे) का जिसे Second Last कहते हैं। इसे ही दूसरा शब्द " द्विचरिम" का भी दिया है। चरम = अर्थात् अन्तिम । द्वि + चरिम अर्थात् अन्त के २ । पहले चित्र में जो असंख्य समय दर्शाए हैं उसमें अन्त के २ समय लेने हैं । उपान्त्य समय में तथा अन्त्य समय इन दोनों समयों में मोहनीय कर्म के सिवाय के तीनों घाती कर्मों का क्षय करना है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म । इनकी अवान्तर प्रकृतियाँ १८ होती हैं। इनमें से स्त्यानर्द्धित्रिक ३ तो पहले ही चली गई है। अब बची हुई १६ में से निद्रा तथा प्रचला का क्षय उपान्त्य समय में हो जाता है । अब १४ ही शेष रही । ज्ञानावरणीय की ५, + दर्शनावरणीय की ४ + तथा अन्तराय कर्म की ५ इस तरह = कुल १४ प्रकृतियों का क्षय करना है । वह भी सिर्फ अन्तिम (चरम) १ समय मात्र काल में ही करना है। इसके लिए ग्रन्थकार महर्षी फरमाते हैं कि
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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