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________________ पूज्य श्री वीर विजयजी म.६४ प्रकारी पूजा में आठों कर्मों की ८ पूजाओं में इतने सुंदर भाव भरते हैं कि कर्म के बंधन की जंजीर को तोड़ने के लिए जिनेश्वर भगवान के गुणों का ध्यान एक कुठारे वज्राघात जैसा कार्य करता है जिसके फलस्वरूप बंधन रूप जंजीर तट जाती है। और आत्मा कर्मबंधन से मुक्त हो जाती है। कर्मरूपी इंधन का दहन करने–जलाने के लिए जिनेश्वर परमात्मा के मंदिर में धूप पूजा जब हम करते हैं तो उसमें अगरबत्ती जो जलती है तब जली हुई राख-भस्म नीचे गिरती है और हल्की होकर धूप आकाश में ऊपर उडती है। क्योंकि वह बिल्कुल वजन विहीन हल्की हो चुकी है । इस तरह धूप पूजा के आलम्बन के आधार पर जिन भक्ति-पूजा-भावना, ध्यान साधना से आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी इंधन (समिध) जलकर भस्मीभूत बनकर राख की तरह नीचे गिर जाते हैं और आत्मा निर्मल कर्मरहित वजनविहीन बनकर संसार से ऊपर उठ जाती है । मोक्ष की तरफ प्रयाण करती है। कर्मबंध का प्रमाण कर्मक्षय का प्रमाण उत्कृष्ट से जीव १ समय में ७ कर्मों यहाँ १२ वे गुणस्थान के अंतिम १ समय को बंध करता है। में क्षपक १४ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है। याद रखिए, जीव आज दिन तक कर्मों को बांधता ही आया है, इस तरह मात्र बंध ही किया है । इसलिए निर्जरा का लक्ष्य ही नहीं था। इसलिए भारी कर्मों को बांधता ही गया । जब निर्जरा करने की दिशा में आगे बढ सके तो बंध की अपेक्षा निर्जरा अनेक गुनी ज्यादा कर सकता है । अज्ञानी को पूर्वक्रोड वर्षों का इतना लम्बा काल कर्म खपाने में लगता हो... तो उतने ही कर्मों का क्षय करने के लिए क्षपक साधक को मात्र श्वासोच्छ्वास अर्थात् श्वास लेने–छोडने जितना ही काल लगता है । श्वासोच्छ्वास को जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा जाता है । कहाँ पूर्वक्रोड वर्षों का काल और कहाँ मात्र अन्तर्मुहूर्त का काल? कहाँ चिंटी और कहाँ हाथी की तुलना? कहाँ सुसंगतता होती है? लेकिन फिर भी आत्मा बलवान बन जाती है। किससे? ज्ञान-ध्यान-तपादि की साधना पूर्वक गुणस्थानों के सोपानों पर आरूढ हुआ साधक बलवान बनकर कर्मक्षय करने लगता है और हो सकता है कि अंतर्मुहूर्त जितने काल में साधक संसार समुद्र से पार उतर सकता है और अंतर्मुहूर्त परिमित काल मात्र में तो ४ थे या ८ वें गणस्थान से क्षपकश्रेणी साधता हुआ केवलज्ञान पाकर और अन्त में आयुष्य पूर्ण होने पर मोक्ष में भी जा सकता है । बस, सिर्फ अन्तर्मुहूर्त के छोटे से काल में तो सारी बाजी समाप्त कर ली जाती है । आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२१५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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