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________________ कर्म के बंध और क्षय की तुलना ज्ञानी श्वासोच्छ्वास में, करे कर्म नो क्षय । पूर्व कोडी वरसां लगे, अज्ञानी करे एह ।। संसार में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों कक्षा के जीव हैं। ज्ञानी भी कैसे ? मात्र दुनिया भर के बाहरी सेंकडों विषयों का ज्ञान भरा हो और भीतर में अपनी ही आत्मा के विषय का अज्ञानी हो वैसा नहीं । या संसार के सेंकडों विषयों का ज्ञान भरा हो लेकिन आत्मा-परमात्मा मोक्षादि तत्त्वों के विषय में सर्वथा अज्ञानी हो या विपरीत विकृत ज्ञानी - मिथ्यात्वी हो तो उसे तो अव्वल दर्जे का अज्ञानी कहा है। अज्ञानी मिथ्यामती जीव भारी कर्म उपार्जन करता है - बांधता है । और आत्मज्ञानी अनेक कर्मों की निर्जरा करता है - खपाता है । 66 1 श्री वीर प्रभु ने कहा है कि- “ अन्नाणं खु महाभयं " अज्ञान ही सर्वकर्म बांधने की है। मूलभूत कारण है। इस तरह संसार में जीव कर्म तो बांधता ही रहा लेकिन क्षय नहीं किये । खपाने का लक्ष्य ही कहाँ रहा है ? यदि कर्मों का क्षय करने बैठे तो ज्ञानी और अज्ञानी को कितना समय लगे ? यदि दोनों स्पर्धा खेलने लगे तो शायद ज्ञानी की छलांग खरगोश जैसी या हिरन जैसी तेज दौड हो और अज्ञानी की शायद कछुए जैसी चाल है । कहते हैं कि ज्ञानी १ श्वासोच्छ्वास मात्र काल में जितने कर्मों का क्षय कर सकता है उतने कर्मों का क्षय करने में अज्ञानी जीव को करोड पूर्व वर्षों का काल लग जाय (पूर्व यह काल की संज्ञाविशेष है ।) और ज्ञान अकेला नहीं यदि उसके साथ ध्यान और तपादि भी जुड जाय तो तो फिर पूछना ही क्या ? कहते हैं कि १२१४ कर्म खपावे चीकणां भाव मंगल तप जाण । पच्चास लब्धि ऊपजे, जय-जय तप गुणखाण ॥ जन्मों-जन्म के कई, भवों वर्षों के चिकने कर्म भी यदि जीव ने इकट्ठे कर रखे हो, बांधे हुए हो, तो वे भी तप-प्रबल तपश्चर्या से खपाए जा सकते हैं, तथा पच्चास लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । ऐसा तप यह भाव मंगल है | I बंधन बेडी भंजवा, जिन गुण ध्यान कुठार । ... कर्म समिध दाहन भणी, धूप घटा जिन गेह ।, कनक हुताशन योगथी, जात्यमयी निज देह ॥ ... आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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