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बांधता था? कितनी लम्बी दीर्घ स्थिति के कर्म बांधता था? ओहो.. हो, एक एक आँख की पलक मात्र के असंख्य समय के-प्रत्येक समय में ७-७ कर्मों का बंध करता था। कितनी भारी कर्म बंध की प्रवृत्ति चलती थी? ऐसे तो एक बार आँख बंद करके खोलने में असंख्य समय बीत जाते थे। जब एक समय में ७ कर्मों का बंध होता है तो असंख्य समयों में कितने कर्मों का बंध हुआ? अरे ! असंख्य x ७ = असंख्य कर्मों का बंध होता ही था.. और होता ही रहेगा। ऐसी एक पलक मात्र में यदि असंख्य समय और असंख्य x ७ कर्मों का बंध होता है तो फिर एक अन्तर्मुहूर्त काल में समय कितने बीतते हैं ? एक अन्तर्मुहूर्त काल मतलब सिर्फ ४८ मिनिट का ही काल, उसमें कितने समय होते हैं? असंख्य x ४८ = पुनः असंख्य की संख्या ही आएगी। तो फिर १ दिन में ऐसे अन्तर्मुहूर्त कितने होते हैं? एक सप्ताह में कितने ? एक पक्ष में ? एक महीने में कितने अंतर्मुहूर्त होते हैं ? और एक वर्ष में कितने तथा ६०-७० या ८० वर्ष के एक आयुष्य (जीवन) काल में कितने अन्तर्मुहूर्त होते होंगे? फिर उनके साथ गुणाकार कर्मों के बंध का करने पर कितनी संख्या आएगी? और ये तो सामान्य प्रवृत्तिरूप कर्मों का बंध है। ८ कर्मों में एक मात्र आयुष्य कर्म ही पूरे जीवनकाल में एक ही बार बंधता है । जबकि शेष ७ कर्मों का बंध तो जीवन में प्रति समय होता ही जाता है। यह तो सर्वसामान्यरूप से बांधता ही जाय वैसा कार्य है । लेकिन सहेतुक प्रयोजन पूर्वक लेश्या और आर्त रौद्र की वृत्ति एवं कषायादि भाव पूर्वक यदि कर्म बांधे तो तो कितने ज्यादा और कितने भयंकर कक्षा के तथा कितनी लम्बी दीर्घस्थिति के कर्म बांधेगा? इस तरह अनादि काल के अनन्त पदल परावर्त काल से कर्मों को बांधने की ही आदतवाली आदी बनी हुई आत्मा मोह के नशे में बांधती ही गई। लेकिन खपाग-क्षय करना तो सीखा ही नहीं । जब से धर्म प्राप्त किया... सम्यग् श्रद्धा पाई और आत्मा सम्यक्त्व के सोपान पर आगे बढी तब से ही कर्म क्षय करने का काम सीखा है । प्रारम्भ किया है । अब धीरे-धीरे गुणस्थानों के एक-एक सोपान आगे चढते चढते जैसे जैसे आत्मध्यान की साधना शुरु होती है, वैसे-वैसे साधक कर्म बांधना कम करता है, बंध करता है और कर्मक्षय करना खपाना शुरु करता है । बस, यही आत्मा का सच्चा श्रेष्ठ धर्म है। इसे ही निर्जरा का सर्वोत्तम धर्म कहते हैं । यही कर्तव्य है, उपादेय आदेय है । अब निर्जरा में यदि साधक क्षय का प्रमाण बढाता ही जाय तो कितना? कहाँ तक बढ़ा सकता है? यह तो उसकी ज्ञान और ध्यान की तीव्रता पर आधार रखता है । ये दोनों साधनाएँ जितनी ज्यादा प्रबल-तीव कक्षा की रहेगी उस हिसाब से उतनी ही ज्यादा कर्मों की निर्जरा होगी।
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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