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आलंबन मात्र चिंतन करने से होता है। अतः यह श्रुतज्ञान के आलंबन से ही होगा। आलंबनरहित संभव ही नहीं है।
अब समरसीभाव का स्वरूप कहते हैं- इस तरह शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार जो "एकत्व अविचार सवितर्क" नाम का है । इस प्रकार ध्यान करते रहने से ध्याता को अपनी आत्मा का अनुभव होने से उस स्वानुभव से समरसीभाव उत्पन्न होता है । इस ध्यान की प्रक्रिया से आत्मा को जो एकाकार करना उसे समरसी भाव कहते हैं। इससे आत्मा परम विशुद्ध ऐसे परमात्मस्वरूप में अभिन्न रूप से अर्थात् स्वआत्मा और परमात्मा में अभेदभाव से लय-लीन हो जाती है । स्वात्म की अनुभूति के भाव को समरसीभाव कहा है। इस तरह शुक्लध्यान के दूसरे चरण में ध्यानमग्न रहकर समरसीभाव की अनुभूति करते हुए क्षपक श्रेणी का साधक १२ वे क्षीणमोह गुणस्थान से काल निर्गमन करता है। इस ध्यान जन्य विशुद्धि से आत्मा कर्मक्षय करते करते केवलज्ञान की प्राप्ति के समीप पहुँचता है । अतः इस दूसरे प्रकार के शुक्लध्यान की साधना से केवलज्ञान की उपलब्धि सुगम बनती है। १२ वे क्षीणमोह गुणस्थान का काल
इस १२ वे गुणस्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट उभय रूप से "अन्तर्मुहूर्त” का ही है । एक अन्तर्मुहूर्त काल में असंख्य समय होते हैं । इसमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन तीनों प्रकार का अंतर्मुहूर्त होता है । १ से ९ समय तक जघन्य अंतर्मुहूर्त और बीच का मध्यम तथा ४८ वी मिनिट का अंतिम काल उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त कहलाता है । अब १२ वे गुणस्थान पर आरूढ हुआ साधक १ ले समय से अंतर्मुहूर्त काल का प्रारम्भ करके अपनी कार्यप्रवृत्ति का प्रारंभ करता है । इस पास वाले चित्र में (असंख्य) समयों की स्थापना की है। १ ले समय से शुरु हुआ। और असंख्य समय तक दर्शाया है । इतने लम्बे काल तक शुक्लध्यान के दूसरे चरण का ध्यान करके आगे बढ़ता है।
आखिर ध्यान साध्य नहीं है। यह साधना है । इसका साध्य तो कर्मक्षय है । इसलिए फल पर, परिणाम पर क्रिया
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- असंख्य समय
-उपन्यास समय
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आध्यात्मिक विकास यात्रा