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________________ की श्रेष्ठता का आधार है। कोई भी कार्य कितना भी अच्छा हो, करनेवाला कर्ता की क्रिया-प्रवृत्ति साधना कितनी भी अच्छी हो लेकिन परिणाम ही न आए, साध्य सिद्ध ही न हो तो कार्य को श्रेष्ठ कौन कहे? कैसे कहें? यहाँ भी ध्यान की साधना कितनी भी ऊँची हो लेकिन इसका भी फल-परिणाम तो आना ही चाहिए। और वह परिणाम एकमात्र कर्मक्षय का है । निर्जरा का है । अतः कर्मक्षय का परिणाम आए तो समझिए कि ध्याता की ध्यानसाधना जरूर श्रेष्ठ कक्षा की लगती है । याद रखिए, ध्यान तो क्रियारूप है। कोई ध्याता ध्यान करता हो उसको ध्यान करते हुए बाह्य स्वरूप को देखने मात्र से कोई परिणाम के बारे में नहीं कह सकता है कि... यह ध्याता कर्म का क्षय करता है या कर्म का बंध कर रहा है? यह निर्णय नहीं किया जा सकता । जी हाँ... सर्वज्ञ ज्ञानी परमात्मा जरूर जान सकते हैं । लेकिन हमारे जैसे अल्पज्ञ कैसे निर्णय करें कि यह ध्यान करनेवाला ध्याता साधक कर्म क्षय कर रहा है या कर्म का बंध कर रहा है? ध्यान दोनों प्रकार के हैं। कर्मबंधकारक अशुभ ध्यान भी ध्यान ही है। तथा कर्मक्षयकारक ध्यान शुभ ध्यान है । इस तरह दोनों प्रकार के ध्यान हैं । प्रसत्रचन्द्र राजर्षि ध्यान में स्थित है, खडे हैं । बाह्य स्वरूप इतना ऊँचा और श्रेष्ठ कक्षा का है कि... एक पैर पर खडे हैं, दो हाथ ऊपर उठाए हैं, सूर्य के सामने दृष्टि लगाई है । स्थिरता बडी सुन्दर है। अद्भुत-अनोखी है । लेकिन ध्यान शरीर से नहीं होता है । हाँ,शरीर सहायक-माध्यम जरूर है । लेकिन शरीर ही सबकुछ नहीं है । शरीर स्थिर होने के पश्चात् मन का कार्य आगे बढता है । आत्मा–ज्ञानादि सब संलग्न होते हैं और ध्यान की तीव्रता बढती जाय तब शुभ-शुद्ध की कक्षा के ऊँचे ध्यान में ही निर्जरा बढ़ती है। ___यहाँ श्रेणिक महाराजा प्रसन्नचंद्र राजर्षी का बाह्य स्वरूप देखकर गद्गद् बन गए.. .अहोभाव से नतमस्तक हो गए। आखिर जाकर समवसरण में भगवान को पूछा... हे प्रभु ! प्रसनचंद्र राजर्षी जैसे श्रेष्ठ महात्मा ध्यान कर रहे हैं...ओह ! कितनी निर्जरा करते होंगे? आखिर सर्वज्ञ भगवान ने घटस्फोट करते हुए कहा कि... हे सम्राट् ! यदि यह ध्यान साधक ध्यातां अभी मृत्यु पाए तो७ वी नरक में जाय । यह सुनकर श्रेणिक महाराजा स्तब्ध रह गए । उनको आश्चर्य हो गया। अरे ! मैं सोचता था कि... इतने ऊँचे बडे ध्यानी महात्मा कितना ऊँचा ध्यान करते होंगे...कि शायद केवलज्ञान पाकर अभी मोक्ष में चले जाएं। लेकिन यह तो सब उल्टा ही हुआ। आखिर ऐसा क्या हुआ? क्या बात थी? तब प्रभु ने कहा- हे श्रेणिक ! ध्यान का बाह्य स्वरूप काफी अच्छा था लेकिन धारा ऊँची नहीं बन पाई। रेल की पटरी तो बिछी हुई है लेकिन..किस तरफ जाना? यह पता न हो आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२०९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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