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तत्त्व के जानकार महापुरुष ऐसे ध्यान को अपृथक्त्व अर्थात् एकत्व कहते हैं। पृथक्-भेद को कहते हैं। अलग-अलग को पृथक्-पृथक् कहते हैं । उसका निषेध करने के लिए निषेधवाची "अ" आगे लगाकर शब्द बनाया है “अपृथक्त्व" । इसलिए इसका अर्थ होता है भेदरहित अर्थात् 'एकत्व' कहते हैं। ध्यान करनेवाला ध्याता एकमात्र अपने विशुद्ध आत्मद्रव्य जो विशुद्ध परमात्म द्रव्य जैसा है उसी का ध्यान करे । अथवा ध्याता अपने विशुद्ध आत्मद्रव्य की सिर्फ एक ही पर्याय का ध्यान करे । अथवा आत्म द्रव्य के सिर्फ एक गुण का ही ध्यान करे । इस तरह एक द्रव्य का अथवा एक गुण का अथवा एक पर्याय का जो निश्चल अर्थात् चपलतारहित स्थिरतापूर्वक ध्यान करे, उसे एकत्व अर्थात् अपृथक्त्व ध्यान कहा जाता है ।
जैसे यह अपृथक्त्व की बात ही है वैसे ही अविचार शब्द का दूसरे श्लोक में वर्णन किया है।..वर्तमान काल में जो ध्यान में निपुणता प्राप्त होती है वह शास्त्र की आम्नाय विशेष से होती है। परन्तु अनुभव मात्र से नहीं होती है । अतः श्रेष्ठ ध्यान की निपुणता ज्ञान के अनुभव रूप में हो सकती है, परन्तु क्रियानुभव के रूप में नहीं । हेमचन्द्राचार्यजी फरमाते हैं कि
अनवच्छित्याऽऽम्नायः, समागतोऽस्येति कीर्त्यतेऽस्माभिः ।
दुष्करमप्याधुनिकैः शुक्लध्यानं यथाशास्त्रम् ॥ इस शुक्लध्यान के स्वरूप का शास्त्र में जो प्रचलित आम्नाय (पद्धति) है उसका विच्छेद न हो इसके लिए शुक्लध्यान का स्वरूप कहते हैं । “अविचार" की प्रक्रिया कैसी होती है इसके विषय में कहते हैं कि... पहले जिसके बारे में कह चुके हैं ऐसे व्यंजन, अर्थ और योग अर्थात् शब्द, अभिधेय और योग इन तीनों के विषय में अर्थान्तर, शब्दान्तर आदि न हो उसे विचाररहित कक्षा कहते हैं । अर्थात् एक शब्द से दूसरे शब्द में न जाना, एक अर्थ से दूसरे अर्थ में भी न जाना, और एक योग में से भी उतरकर दूसरे योग में न जाना इस तरह परस्पर संक्रांति रहित स्थिति को विचार रहित (शून्य) अविचार' अवस्था ध्यान की कही है। यह श्रुतज्ञान के अनुसार है।
.. अब सवितर्क के बारे में कहते हैं कि.. जिस ध्यान में “निजशुद्धात्मनिष्ठं" अर्थात् "अपने ही अत्यन्त विशद्ध आत्मा में ही लीन हो जाना" ऐसा सूक्ष्म विचाररूप जो चिन्तन (ध्यान) किया जाता है उसे सवितर्क विशेषणवाला ऐसे गुणवाला जो शुक्लध्यान का दूसरा भेद कहा जाता है । इसे सवितर्क कहने का तात्पर्य यह है कि... यह भावश्रुत के आलंबन से होता है । अर्थात् सूक्ष्म अन्तर्जल्पाकाररूप जो भाव आगमरूप श्रुतज्ञान उसके
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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