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________________ बनकर शुक्लध्यान के दूसरे चरण का ध्यान करना चाहिए और १३ वे गुणस्थान पर शुक्लध्यान का ३ रा तथा ४ था भेद उनके ध्यान का विषय बनता है । इस तरह श्रेणी के गुणस्थानों की आधारशिला शुक्लध्यान है। शुक्लध्यान के २ रे प्रकार का ध्यान __ भाव से ध्यान की और ध्यान से भावों की अन्योन्य विशुद्धि बढते बढते कर्मों की ढेर सारी निर्जरा करते करते आगे बढ़ता है। शुक्लध्यान को प्रथम प्रकार पृथक्त्व-वितर्क-सविचार का ध्यान करके अब १२ वे गुणस्थान पर दूसरे प्रकार में आकर आगे बढ़ता है। अपृथक्त्वमवीचारं सवितर्कगुणान्वितम्। सध्यायत्येकयोगेन, शुक्लध्यानं द्वितीयकम् ।।७५ ।। अपृथक्त्व–अविचार-सवितर्क प्रकार के इस दूसरे भेद में शुक्लध्यानी ध्यानसाधना बडी प्रबल कक्षा की करता है । इसमें आत्मादि का ध्यान कैसे करता है ? निजात्मद्रव्यमेकं वा, पर्यायमथवा गुणम्। निश्चलं चिन्त्यते यत्र, तदेकत्वं विदुर्बुधाः ।।७६ ।। यव्यंजनार्थयोगेषु परावर्तविवर्जितम्। चिन्तनं तदविचारं, स्मृतं सद्ध्यानकोविदैः ॥७॥ निजशुद्धात्मनिष्ठं हि भावश्रुतावलंबनात्। चिन्तनं क्रियते यत्र, सवितर्कं तदुच्यते ।। ७८ ॥ इत्येकत्वमविचारं सवितर्कमुदाहृतम्। तस्मिन् समरसीभावं धत्ते स्वात्मानुभूतितः ॥७९ ।। ग्रन्थकार महर्षि यहाँ शुक्लध्यान के विषय की बात में दूसरे प्रकार की विचारणा में लिखते हैं।- प्रथम भेद में जो सपृथक्त्व था अब दूसरे प्रकार में अपृथक्त्व रहता है। तथा अर्थ-व्यंजन योग की संक्रान्ति से रहित यह दूसरा ध्यानप्रकार है । यहाँ पूर्व के भाव इतने विशेष होते हैं कि... पहले की तरह यहाँ प्रतिसमय विशुद्धि सहित तथा पूर्वगत श्रुत के अनुसार ध्यान होता है, तथा पूर्वोक्त आसनजयादि के अभ्यासवाला साधक होता है । पृथक्त्वरहित, विचाररहित और वितर्क गुण से युक्त ऐसा यह दूसरे प्रकार का शुक्लध्यान १२ वे गुणस्थान पर होता है। १२०६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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