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________________ अच्छी तरह समझ ही चुके होंगे। अब तो मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में से एक भी कर्म की प्रकृति उदय में नहीं है । इसलिए वीतराग कहना उचित है । लेकिन एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि... उदय में भले ही न हो लेकिन सभी सत्ता में जीवंत पडी है। एक साँप या राक्षस मरा न हो लेकिन आँख मूंद कर,यदि मरने जैसा बहाना बनाकर मात्र सोया हुआ है, उसपर क्या विश्वास रखा जा सकता है ? अरे ! जिन्दे जीते जी साँप की तो बात ही कहाँ रही, अन्धेरे में टेढी मेढी पड़ी हुई रस्सी के आकार मात्र से साँप समझकर भ्रान्तिवश भी विश्वास नहीं रखते हैं लोग, तो फिर जिन्दे जीते जी साँप या राक्षस पर मात्र आँख मूंदकर पडे रहने मात्र से विश्वास कैसे आ सकता है ? इसलिए ११ वे उपशान्त मोहनीय गुणस्थान पर वीतराग कैसे कहना? निश्चय नय से तो नहीं कह सकते हैं क्योंकि निश्चय नय से तो मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने के पश्चात् ही वीतराग कहना उचित है। न्यायसंगत है । लेकिन व्यवहारनय से जितनी देर तक सत्ता में पड़ी हुई मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उदय में से शान्त हो चुकी हैं, उतनी देर तक वीतराग कह सकते हैं । भले ही अंतर्मुहूर्त परिमित काल तक भी यह आस्वाद चखने मिले जीव को फिर भी व्यवहार नय से कह सकते हैं । इसलिए उपशान्त वीतराग छद्मस्थ नाम कहा है। - अब रही १२ वे क्षीण मोहनीय गुणस्थान की बात । यहाँ वीतराग कहना बिल्कुल न्याय सुसंगत है । मोहनीय कर्म की समस्त २८ प्रकृतियों का संपूर्ण जडमूल से क्षय तो हो चुका है । अतः वीतराग कहना न्यायसंगत उचित ही है । यह क्षपक जीव है । अंश मात्र भी कर्म को सत्ता में रखने के लिए तैयार ही नहीं है । उपशम श्रेणीवाले जीव का काम ऊपर ऊपर से उदय मात्र में देखकर होता है जबकि क्षपक श्रेणीवाला सत्ता का जड़ में से ही कर्म को मूल से क्षय करके निकाल फेंकता है । १० वे गुणस्थान तक मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ जितनी थी उतनी सब का जडमूल से क्षय कर दिया है । यद्यपि अन्तिम सूक्ष्म लोभ की प्रकृति का क्षय भी १० वे गुणस्थान पर कर दिया तो फिर वहीं वीतराग क्यों नहीं बना साधक? पहले जो उत्तर दिया है वही यहाँ भी समझना उचित है । १० वे सू. सं. गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। उसमें भी अंतिम लोभ की प्रकृति का क्षय उसे करना ही है । इसलिए जब तक सू. लोभ की प्रकृति का क्षय नहीं करेगा तब तक तो वीतराग बन ही नहीं सकता है। दूसरी तरफ लोभ की प्रकृति का क्षय करने में कितना समय लगेगा? क्या जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का समय लगेगा? किसको कितना लगेगा यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए १० वे गुणस्थान पर वीतराग कहना कहाँ तक उचित रहेगा? १२०० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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