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दूसरी तरफ क्षपक साधक का १० वे गुणस्थान पर जितने समय में लोभ की प्रकृति का क्षय करने का कार्य जैसे ही पूरा हो जाता है कि.. तुरंत ही ११ वे गुणस्थान पर न जाते हुए सीधी छलांग लगाकर १२ वे क्षीण मोहनीय गुणस्थान पर आरूढ होता है । और जैसे ही १२ वे गुणस्थान पर पहुँचता है कि तुरंत मोहनीय के अभाव में वीतरागता प्राप्त करके वीतरागी बनता है साधक । १२ वे गुणस्थान पर वीतरागी जरूर बना है लेकिन अभी तक सर्वज्ञ नहीं बना है इसलिए छद्मस्थ कहलाता है ।सर्वज्ञता की उपलब्धि १३ वे गुणस्थान पर होती है । १३ वे गुणस्थान की उपलब्धि का अभाव १२ वे गुणस्थान पर जरूर रहेगा इसलिए १३ वे गुणस्थानवाले को १२ वे गुणस्थान की उपलब्धिवाला तो कहना ही चाहिए । उचित यही है। गुणस्थानों के नामकरण की व्यवस्था
जिस गुणस्थान पर जिस गुणस्थान की प्राप्ति होती है वही उसका सूचक नामकरण बन जाता है । वही उसकी पहचान कहलाती है। यही नियम सभी गुणस्थानों के लिए लगता है । इस नियम के आधार पर ४ थे गुणस्थान पर सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है । ५ वे गुणस्थान पर विरति-व्रतादि की प्राप्ति होती है । छठे गुणस्थान पर साधुता की प्राप्ति होती है । ७ वे गुणस्थान पर अप्रमत्त भाव की उपलब्धि होती है। ८ वे पर साधक को अपूर्व आत्मवीर्यरूप करण की प्राप्ति होती है । जिसके बल पर श्रेणी करके आगे ऊपर चढता है । १.३ वे गुणस्थान पर जा कर सर्वज्ञता को प्राप्त करता है।
बीच के कुछ गुणस्थान के नाम वहाँ न होनेवाले कार्यों के आधार पर नामकरण रखा है । नौवे गुणस्थान पर १० वे गुणस्थान पर जो कार्य करना है उसका नाम है । २ रे गुणस्थान की स्थिति सास्वादन की है। इसलिए सम्यक्त्व का वमन करने पर आस्वाद कैसा होता है ? तथा ३रे मिश्र गुणस्थान पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वदोनों की मिश्रावस्था मिली हुई अवस्था होने के कारण जैसा स्वरूप होता है वैसा नामनिर्देश २, ३, ९, १० गुणस्थान का किया गया है। ___ ११ वे तथा १२ वे गुणस्थान का नामकरण वहाँ की स्थिति के आधार पर रखा है। ११ वे गुणस्थान पर कुछ भी नहीं करना है लेकिन जिन मोहनीय कर्मों का पिछले गुणस्थान पर उपशमन (दबाता हुआ) करता हुआ जीव आगे बढता-बढता ११ वे गुणस्थान पर आया हो, उसकी स्थिति कैसी हो गई है? वैसा सूचक नाम रखा है। उपशान्त मोहनीय यही सूचक सही नाम रखा है । वैसी ही बात १२ वे गुणस्थान पर भी है। पिछले गुणस्थान
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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