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बात ठीक लगती है, लेकिन गुणस्थानों के सोपान रूप आध्यात्मिक विकास के गुणों पर क्रमशः चढते हुए और मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का क्रमशः क्षय करता हुआ आगे बढ़ते-बढते १० वे गुणस्थान पर आता है । २७ प्रकृतियाँ नौंवे गुणस्थान तक क्षय हो जाती हैं । लेकिन... २८ वीं एक प्रकृति लोभ की शेष बच जाती है । यद्यपि १० वे सूक्ष्म संपराय गुणस्थान का समय अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । ज्यादा तो है ही नहीं । अब इतने समय में सूक्ष्म लोभ की प्रकृति का क्षय करना ही करना है। लेकिन उसमें कितना समय लगेगा ? कोई ख्याल नहीं । हो सकता है कि जघन्य अंतर्मुहूर्त भी लग सकता है, या फिर मध्यम अन्तर्मुहूर्त भी लग सकता है । या फिर उत्कृष्ट कक्षा का अंतर्मुहूर्त काल लग सकता है । कुछ भी नहीं कह सकते हैं । यह तो सर्वज्ञ ही कह सकते हैं। अनन्त जीव हैं । अनन्त जीव क्षपक श्रेणी पर चढे हैं । अनन्त जीव भूतकाल में उपशम श्रेणी पर भी चढे ही हैं । यह तो जीव पर निर्भर करता है कि... वह कितना समय लेगा । लोभ का क्षय करने का कार्य तो चल ही रहा है । इसलिए मोहनीय कर्म का क्षय करने का कार्य चल रहा है, वहाँ तक तो वीतराग कैसे कहा जा सकता है ? इसलिए १० वे गुणस्थान पर वीतराग नहीं
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कहा ।
दूसरे विकल्प में १० वाँ गुणस्थान उपशम और क्षपक दोनों श्रेणीवाले के लिए हैं । यहाँ हम कैसे निर्णय कर सकते हैं कि... यह जीव उपशम श्रेणी का है या क्षपक श्रेणी का है ? क्षपक श्रेणीवाला तो अभी अन्तिम प्रकृति लोभ की खपा रहा है । अभी कार्य चल
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रहा है । इसलिए वीतराग नहीं कह सकते हैं । दूसरी तरफ उपशम श्रेणी के जीव के लिए तो क्षय करने का सवाल ही नहीं है। वह तो उपशमन करने की वृत्तिवाला है । मोहनीयादि कर्मों की प्रकृतियों का शमन करती है, दबाती है। बस, उदय में नहीं दिखता है लेकिन सत्ता में तो पडी ही है । ८ वे, ९ वे से इसी उपशमन की रीत को अपनाकर उसी के आधार पर आगे चल रहा है और लोभकर्म की प्रकृति १० वे गुणस्थान पर है। अतः उपशामक जीव यहाँ आकर भी शमन करने का, दबाने का ही काम करता है । अतः १० वे गुणस्थान पर शमक साधक लोभ का भी अन्य कर्मप्रकृतियों की तरह शमन ही करेगा । मात्र दबाएगा । इस तरह दबाने का भी काम करता है । अभी काम चालू है । इसलिए यहाँ १० वे गुणस्थान पर वीतरागी कहना उचित नहीं है ।
अब रही ११ वे गुणस्थान की बात । क्या ११ वे गुणस्थान पर उपशान्त मोह को वीतरागी कहा जा सकता है ? बडी विचित्र - विस्मयकारी बात है एक तरफ मोहनीय कर्म की सभी प्रकृतियाँ शान्त हो चुकी हैं। दबाई जा चुकी हैं। आप उपशमन की प्रकिया को
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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