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अराग-अद्वेष, सर्वजीव परमार्थभाव, परोपकारपरायणता, सर्व जीव उपकारिता विश्ववात्सल्य, सर्व जीव कल्याणरसिकता, वसुधैव कुटुंबकता, अनिंद्यपना, सम्यग् दर्शिता, सम्यगाचारशीलता, अनन्त चारित्रता, अनन्त वीतरागता, यथार्थ स्वरूपरमणता, आत्मगुणरमणता, स्वस्वरूपपरायणता, यथार्थ वादिता, अखेद आदि अनन्त गुणों के खजाने का सूचक एक शब्द वीतरागता है।
केवलज्ञान-केवलदर्शनादि गुणों का कार्यक्षेत्र मात्र एक ही है। केवलाज्ञान का कार्य है समस्त ब्रह्माण्ड के पदार्थों को जानना, केवलदर्शन का कार्य है देखना । सिर्फ एक एक ही कार्यक्षेत्र लेकर चलते हैं ये गुण, मर्यादित कार्य है, जबकि वीतरागता व्यापक है, गुण का कार्यक्षेत्र व्यापक है । बोलने में भी राग-द्वेषरहितता से बोलना है। रहने में समतादि भावों में स्थिर रहना है । अंश मात्र भी कषायादि भाव आना ही नहीं चाहिए।. उपरोक्त सभी गुण अपने स्वरूप में सदाकाल उपस्थित ही रहते हैं । रहने ही चाहिए। सर्वथा दोषरहित निर्दोष जीवन जीना है। इसलिए “दोषरहितोऽयं निर्दुष्टजीवः” निर्दोष जीवन जीनेवाला वीतराग भाव को प्राप्त वीतरागी जीव १२ वे गुणस्थानवी जीव होता है। आप सोचिए, अनादिकालीन मोहनीय कर्म के कारण जीव ने जो दुःख अनन्तकाल तक भुगता है अब उसको जाने के पश्चात् सुख या आनन्द भी कितना अनुभव करना है। वह भी अनन्त ।
तीसरा गुण आत्मा का अनन्त चारित्र का है । यथाख्यात स्वरूप का है । अनन्तानन्द का अनुभव करना है । इसी गुण का आवरक जो मोहनीय कर्म था इसीने अनन्त चारित्रहीन, चारित्ररहित बनाने का काम किया। इसके कारण अनन्तकाल तक आत्मा चारित्रहीन, दुश्चरित्रवान, खराब स्वभाववाली बनकर रही। अनन्तकाल तक अपनी आत्मा के स्वस्वरूप को कभी पहचान भी नहीं सका जीव । अनन्त ऐसे पौद्गलिक भौतिक पदार्थों में, बाहर के जीवों में आसक्ति रखने का काम इसी कर्म की देन है । और इन सब पर संपूर्ण विरक्ति यह मोहनीय कर्म के आवरण के हटने के बाद गुण से ही संभव है । इस तरह इस गुण की उपलब्धि बहुत बडी प्राप्ति है। वीतरागता की प्राप्ति कहाँ ?
१० वाँ गुणस्थान, ११ वाँ गुणस्थान, और १२ वाँ गुणस्थान ये ३ गुणस्थान हैं। प्रश्न यह उठ सकता है कि...१० वे सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान पर मोहनीय कर्म की २८ कर्मप्रकृतियाँ पूरी समाप्त हो जाती है। अब मोहनीय कर्म का अंश मात्र भी नहीं बचा है तो फिर १० वे गुणस्थान पर ही वीतरागी क्यों नहीं कहते हैं ?
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आध्यात्मिक विकास यात्रा