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वीतरागता की प्राप्ति का आनन्द
इस तरह निश्चय नय से अनादि-अनन्त आत्मा की गुणस्थिति होते हुए भी व्यवहारनय से कर्मों के क्षय से सादि अनन्त गुणस्थिति का व्यवहार किया जाता है । इस सिद्धान्तानुसार भूतकालीन अनादि-सान्त मोहनीय कर्म का आज १० वे गुणस्थान पर संपूर्ण क्षय होने से = अन्त आने से आत्मा सीधे ही वीतराग दशा को प्राप्त होती है। १२ वे गुणस्थान पर वीतरागी कही जाती है । यह वीतरागता का गुण सादि-अनन्त की कक्षा का है। अनादि-अनन्तकालीन निश्चयनय की दृष्टि से होते हुए भी व्यवहारनय से इस वीतरागता के गुण की आज शुभ शुरुआत होने से व्यवहारनय से सादि कहा जाएगा। और भविष्यकाल में अनन्तकाल तक रहेगा अतः अनन्त ही कहा जाएगा। इसका पुनः कभी अन्त नहीं होगा। - इस तरह अनादि-अनन्तकालीन संसार में राग-द्वेष के घेरे में फसी हुई रहकर कर्म की थपेडें खाकर यह आत्मा बीते हुए अनन्तकाल में पहली बार जब अपने स्व की वीतरागता के गुण को और वह भी अनन्त स्वरूप में प्रगट करती है, प्राप्त करती है, और वह भी.अमिट-शाश्वत-नित्य स्वरूप के सुख को पाती है तब किसे आनन्द नहीं होगा? सच देखा जाय तो यह आनन्द इतना ज्यादा और अनन्त की कक्षा का होगा कि... अवर्णनीय बन जाएगा । अवक्तव्य इसलिए बन जाएगा कि अभिव्यक्ति के लिए शब्द ही नहीं मिलेंगे। आखिर शब्द शक्ति सीमित है । परिमित है । मर्यादित है । आनन्द के उतने अपरिमित सुख को स्पष्ट करने में ये शब्द बौने सिद्ध होते हैं। आखिर शब्दज्ञान यह श्रुतज्ञान का निमित्त है। नहीं कि केवलज्ञान का । श्रुतज्ञान दूसरे क्रम पर है जबकि केवलज्ञान पाँचवे अन्तिम कक्षा पर है । यह अनन्त ज्ञान है । यह १३ वे गुणस्थान पर प्रारम्भ में उत्पन्न होता है । यह शब्दात्मक श्रुतज्ञान केवलज्ञान के सामने बहुत छोटा है। अनन्तगुने केवलज्ञान के सामने मात्र अनन्तवे भाग का ही शब्दज्ञान-श्रुतज्ञान है । इसलिए श्रुतज्ञान के शब्दों में इतनी क्षमता कहाँ है कि अपने शब्दों से अनन्तगुने आनन्द को व्यक्त कर सके? __ वीतरागता बहुत बडा गुण है । यह समुद्र जितना विशाल–व्यापक गुण है । इसकी गहराई में अनेक गुण छिपे हुए हैं। क्षमा, समता, नम्रता, सरलता, संतोष, दया, करुणा, सर्व जीव मैत्रीभाव, सर्वव्यापी माध्यस्थ भाव, अनन्तगुनी अहिंसा की परिणति, सर्व जीवोंपर व्यापक प्रेम, सत्यवादिता, मृषात्यागिता, अस्तेयवृत्ति, अनन्त ब्रह्मचारिता, निष्परिग्रहता,
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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