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________________ इसलिए इनके नाम के आधार पर ही कर्मों का भी नामकरण है । स्वाभविक ही है कि कर्म तो जड पौगलिक है। पुद्गल परमाणुओं के पिण्डमात्र है । अतः परमाणुओं का क्या नाम होता है ? कुछ भी नहीं । लेकिन इन परमाणुओं का पिण्ड बनकर एक स्तर बना देते हैं और आत्मा पर यह स्तर दीवाल पर रंग की तरह चढ जाता है। जैसे दिवाल की ईंटें या चूना- सिमेन्ट कुछ भी दिखाई नहीं देता एक मात्र रंग ही दिखाई देता है ठीक उसी तरह आत्मा दिखाई नहीं देती, उसके गुण भी दिखाई नहीं देते एक मात्र आवरणरूप कर्म की स्तर ही दिखाई देती है । वह कर्म जब उदय में आता है तब उसका विपाक - फल जो सुख-दुःखात्मक है उसका अनुभव होता है । 1 आत्मा के ज्ञान गुण का आवरक ज्ञानावरणीय कर्म है, दर्शन गुण का आवरक दर्शनावरणीय कर्म है। ऐसा एक-एक कर्म.. आत्मा के एक एक मुख्य गुण के आवरक—आच्छादक- आवरण बन जाते हैं । वे ज्ञानादि गुण ढक जाते हैं। इस तरह ज्ञानावरणीय कर्म एक ज्ञान गुण को ढकता है। लेकिन मोहनीय एक ऐसा कर्म है जो आत्मा के अनेक गुणों को ढक देता है। मोहनीय कर्म बहुत बडा है लम्बा- चौडा है । सबसे खतरनाक है । इसकी प्रवृत्ति से भी ... अनेक कर्मों का बंध होता है। मोहनीय कर्म की आश्रवात्मक प्रवृत्ति... दूसरे अन्य कर्मों के लिए भी आश्रव का कारण, बंध के हेतु बन जाते हैं । इसलिए एक मोहनीय कर्मजन्य प्रकृति के आधार पर अन्य शेष सभी कर्मों बंध की प्रवृत्ति होती है। दूसरे भी कर्म बंधते है। ( इस संबंधी विचारणा पहले की है कृपया वहाँ से पुनः पढने का कष्ट करें ।) 1 मोहनीय कर्म के कषायों में से क्रोध - मान-माया और लोभ ने मुख्य गुणों का घात करके हटा दिया। परिणाम स्वरूप क्षमा-समता-नम्रता - सरलता - सन्तोष- शान्ति आदि सेकडों गुण दब जाते हैं । अनन्तानुबंधी आदि जन्य क्रूरता के कारण, अशुभतर लेश्याओं कृष्ण - नीलादि के कारण हिंसादि की प्रवृत्ति ज्यादा बढती है । इससे अहिंसा की भावना, जीवदया, प्राणीरक्षा, जयणा, सत्यवादिता, अस्तेयवृत्ति, दानादि की उदारता, शीयल-ब्रह्मचर्य के भाव, अपरिग्रह की अकिंचनता, त्याग भावना आदि सेंकडों गुण सब दब जाते हैं । ये सब आत्मा के विशिष्ट कक्षा के गुण हैं। इनकी बहुत बडी आवश्यकता जीवन जीने के व्यवहार में होती है । यदि ये और ऐसे गुण नहीं होते हैं तब दोषों की वृद्धि होती है । दोष गुण से ठीक विपरीत भाव के होते हैं। इसी तरह नोकषाय मोहनीय के हास्यादि की कर्म प्रकृतियाँ... गंभीरता - निर्भयता आदि के सभी गुणों को ढककर उल्टे वहाँ दोषों को प्रकट कर देता है । 1 आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना ११९३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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