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________________ मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का सबका काम यही है कि... एक मात्र आत्मा के गुणों को दबाकर-ढककर उसकी जगह पर, गुणों के बदले दोषों को प्रकट करना-बढाना जिसके कारण मनुष्य दोषवान बनकर दूषित जीवन जीता है। इसलिए मोहनीय कर्म गुणघातक, स्वरूपनाशक कर्म है । आत्मा के यथार्थ मूलभूत स्वरूप को ही नष्ट या विकृत कर देता है । नोकषाय मोह का दूसरा भाग-प्रभेद वेद मोहनीय का है। आत्मा को ब्रह्म में लीन रहना चाहिए, स्व-स्वरूप में मस्त रहना चाहिए। इसके बजाय वह वेद मोहनीय के उदय के कारण काम वासना की संज्ञा में फसकर अन्य विजातीय स्त्री-पुरुषों के शरीर का उपभोग करके आनन्द मानने में पागल हो जाता है । अरे रे ! अपने स्वगुणों की स्व-स्वभाव की रमणता के आनन्द को भूलकर पर में आसक्त बनता है । बस, क्षणिक भोग-जन्य सुखों में आनन्द मानता है। ऐसी दयनीय स्थिति बन जाती है । यथाख्यात स्वरूप - जैसा कि - आत्मा का गुणात्मक स्वरूप कहा गया है वैसा ही स्वरूप होना चाहिए । परन्तु मोहनीय कर्म वैसा रहने ही नहीं देता है । दोषग्रस्त-दोषाधीन करके दूषित जीवन बनाकर दोषी कैदी अपराधी की तरह जीवन जिलाता है। इस तरह इन सब दोषों-दुर्गुणों का समूहात्मक नाम राग + द्वेष रखा गया है । ये शब्द सब दोषों-दुर्गुणों के सूचक सम्मिलित नाम मात्र हैं । यद्यपि आप जानते ही हैं कि राग नाम की, या द्वेष नाम की स्वतंत्र मोहनीय कर्म की कोई प्रकृति नहीं है। २८ कर्मप्रकृतियों में राग-या द्वेष नाम की स्वतंत्र कोई कर्मप्रकृति नहीं है । जी हाँ... कषाय मोहनीय की जो ४ प्रकृतियाँ क्रोध, मान, माया और लोभ हैं, इन ४ में दो दो के समूह बनते हैं । क्रोध और मान एक द्वेष के घर में गिने जाते हैं । इसी तरह माया और लोभ ये दोनों भी राग के एक घर में गिने जाते हैं । चूंकि माया और लोभ में राग की प्राधान्यता है, तीव्रता है, प्रमुखता है, इसलिए । ठीक इसी तरह क्रोध और मान में द्वेष की प्राधान्यता है, तीव्रता है, प्रमुखता है । आप संसार के व्यवहार में जब भी कभी क्रोध और मान को देखिए इनकी प्रवृत्ति देखिए, निश्चित रूप से आपको द्वेष पानी पर तैल बिन्दु की तरह स्पष्ट तैरता हुआ दिखाई देगा। नोकषाय और वेद मोहनीय में भी आप अच्छी तरह देखेंगे तो किसी में राग तो किसी में द्वेष की गंध स्पष्ट रूप से आएगी। वेद मोहनीय में राग तो स्पष्ट तैरता हुआ दिखाई देता ही है। इस तरह यदि समस्त मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का सबका संक्षिप्तीकरण करके देखें तो राग-द्वेष के इस नाम में पूरा मोहनीय कर्म समा जाता है। ११९४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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