SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिवर्तन आरोह–अवरोहादि सब एकमात्र भव्यात्मा के विषय में ही होता है । इसलिए चढा हुआ गिरता भी है । ऐसी पतनावस्था के काल में बीच में यह सास्वादन नामक दूसरा गुणस्थान आता है । अतः सास्वादनस्थ जीव १ ले मिथ्यात्ववाले की अपेक्षा काफी ऊँचा है। अच्छा है । अतः यह दूसरा सास्वादन गुणस्थान सम्यक्त्व से गिरते समय पतन के समय का है । १ ले गुणस्थान से चढते समय का नहीं है। भव्यात्माओं में भी जिनका तथाभव्यत्व परिपक्व हो चुका है और जिसका संसार अपार्धपुद्गलपरावर्तकाल मात्र ही शेष रहा हो वही सम्यक्त्व पाता है । सिद्धान्त में कहते हैं कि.. अंतोमुहूत्तमित्तंपि, फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं। तेसिं अवड्डपुग्गलं, परिअट्टो चेव संसारो॥ अन्तर्मुहूर्त = ४८ मिनिट मात्र काल भी जिस जीव ने सम्यक्त्व का स्पर्श भी किया हो (भले ही बाद में पतन हो) वे जीव निश्चित रूप से अपार्धपुद्गल परावर्त परिमित काल में मोक्ष में जाते ही हैं। हो सकता है कि पतन हो, गिरे और सास्वादन पर आकर मिथ्यात्व पर जाय। लेकिन फिर वापिस चढते देर नहीं लगेगी। इस तरह सास्वादन गुणस्थान का होना दोषरहित प्रतीत होता है । तथा मिथ्यात्व के पहले गुणस्थान से काफी ऊँची कक्षा का है। सास्वादन गुणस्थान पर कर्मप्रकृति- . दूसरे सास्वादन गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्व, नरकत्रिक, एकेन्द्रियादि ४ जाति, स्थावर चतुष्क, आतप, हुंडकं संस्थान, सेवार्त संहनन, नपुं० वेद इन १६ प्रकृतियों का (मिथ्यात्व के अंत में) बन्ध विच्छेद होने से..१०१ प्रकृतियों का बंध करता है । तथा सक्ष्मत्रिक, आतप और मिथ्यात्व इन ५ प्रकृतियों का उदय विच्छेद (मिथ्यात्व के अन्त में) होने से तथा नरकानुपूर्वी का अनुदय होने से १११ प्रकृतियों का उदय इस सास्वादन गुणस्थान पर होता है । यहाँ तीर्थंकर नाम कर्म की सत्ता भी नहीं होती है । अतः सास्वादन गुणस्थान पर १४७ कर्मप्रकृति की ही सत्ता होती है । इस तरह यहाँ आठों कर्मों की सत्ता होती है । ८ या ७ कर्मों का बंध होता है । आठों कर्मों का वेदन-उदय होता है । ७ या ८ कर्म की उदीरणा भी करनी पड़ती है । आठों कर्मों की निर्जरा भी यहाँ करनी रहती है। यहाँ बंधहेतुओं में से मिथ्यात्व को छोडकर शेष अव्रत, कषाय, प्रमाद, योगादि सभी होते हैं जिससे कर्मों का बंध भी होता है । मिथ्यात्व में रहे हुए अनन्तानुबंधी कषायों का १९७४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy