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है । उस समय वह जीव इतनी देर के लिए ही सही सास्वादन गुणस्थान पर आता है। सिद्धान्त में भी कहते हैं कि
उवसम अद्धाइ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गन्तुमणो।
सम्मं आसायन्तो, सासायणमो मुणेयत्तो ॥११॥ उपशान्त काल (अद्धा) में प्रवर्तता लेकिन अभी तक भी मिथ्यात्व को न पाया हो परन्तु हाँ... मिथ्यात्व पाने की दिशा में मिथ्यात्व के सन्मुख हुआ हो, मिथ्यात्व के घर रूप पहले गुणस्थान पर जाने के लिए उत्सुक हुआ हो, ऐसा जीव सम्यक्त्व के वमन समय में अल्प-किंचित् आस्वादनवाला (अर्थात् अनुभव करनेवाला) सास्वादन दृष्टिवाला कहा जाता है । इसे सास्वादन मिथ्यात्व दृष्टि भी नहीं कहा है । परन्तु सास्वादन सम्यग् दृष्टि जरूर कहा है । क्योंकि स्वाद-आस्वाद सम्यक्त्व का है । मिथ्यात्व का नहीं।
___ शायद आपको यहाँ शंका हो सकती हैं कि... मात्र ६ आवलिका के परिमित काल के पतन समय की अवस्था को इतना बडा गुणस्थान का दर्जा क्यों देना? इतने से के लिए एक स्वतंत्र गुणस्थान क्यों बनाया? आपकी बात ठीक है, लेकिन कुछ देर तक और सोचिए..समझिए...कि यह सास्वादन गुणस्थानवाला जीवचौथे-तीसरे से गिरनेवाला जीव है । सम्यक्त्व से यहाँ दूसरे पर आ रहा है। अभी १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर पहुँचा भी नहीं है, और मिथ्यात्वी बना भी नहीं है । इसलिए १ ले गुणस्थानवाले मिथ्यात्वी की अपेक्षा तो ऊँचा है। दूसरा हेतु यह भी है कि-१ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर तो अभवी जीव भी होते हैं, भवी भी होते हैं, जातिभव्य भी होते हैं। लेकिन दूसरे सास्वादन गुणस्थान पर तो अनिवार्य रूप से एक मात्र भव्य जीव ही होते हैं। क्यों कि भव्य जीव ही सम्यक्त्व पाते हैं, और सम्यक्त्व पाए हुए ही गिरेंगे तो मिथ्यात्व पर आएंगे। मिथ्यात्व के ही घर में अनादि-अनन्त काल से बैठे हुए मिथ्यात्वी जीव के लिए तो गिरने का प्रश्न ही खडा नहीं होता है । जो चढता है वही गिरता है । इस नियम के आधार पर सम्यक्त्व पाया हुआ भव्य जीव गिरेगा वही यहाँ दूसरे गुणस्थान पर आएगा। अभवी, जाति भव्य (दुर्भव्य) आदि तो सम्यक्त्व पाते ही नहीं है, अतः चौथे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर चढने का सवाल ही खडा नहीं होता है, तो फिर गिरने की बात कहाँ से आएगी? इसलिए दूसरे सास्वादन गुणस्थान पर आने का प्रश्न ही नहीं उठता है। अभवी, दर्भव्य (जाति भव्य) अनन्त काल तक एक मात्र पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर ही रहते हैं । जो अनादि काल से तो हैं और भविष्य में भी अनन्त काल तक रहनेवाले ही हैं। अतः उनके लिए तो गुणस्थानों के परिवर्तन का कोई सवाल ही खडा नहीं होता है । अतः यह गुणस्थानों का
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण'
१९७३