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कर्मों का जड़मूल से क्षय नहीं अपितु उपशमन ही था । इसलिए उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया था । ऐसा अंतरकरणोपशम सम्यक्त्व पूरे भव चक्र में मात्र एक बार ही प्राप्त हो सकता है। तथा
अकयतिपुंजो ऊसर - ईलिय दवदडुरुक्खनाएहिं । अन्तरकरणुवसमिओ, उवसमिओ वा ससेणिगओ ॥ १ ॥
शास्त्रकार महर्षि भी फरमाते हैं कि जिस जीव ने ३ पुंज किये नहीं है ऐसा जीव १) उषर क्षेत्र, २) इलिका या दवदग्ध वृक्ष के ३ दृष्टान्तों की तरह अन्तरकरणोपशम सम्यक्त्ववाला अथवा स्वश्रेणी अर्थात् उपशमश्रेणिवाला उपशमसम्यक्त्वी होता है, वह अर्थात् उपशमसम्यक्त्ववाला, तथा उपशमश्रेणिवाला उपशमसम्यक्त्वी जीव दोनों ही प्रकार का उपशमसम्यक्त्व सास्वादन गुणस्थान की उत्पत्ति में मूलभूत (मुख्य) कारण बनता है । सास्वादन की कक्षा का सम्यक्त्व उपशम सम्यक्त्व के कारण से कैसे होता है । वह कहते हैं—
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एकस्मिन्नुदिते मध्याच्छान्तानन्तानुबन्धिनाम् ।
आद्योपशमिकसम्यक्त्व, शैलमौलेः परिच्युतः ॥ ११ ॥ समयादावलिषट्कं यावन्मिथ्यात्वभूतलम् ।
नासादयति जीवोऽयं, तावत्सास्वादनो भवेत् ॥ १२ ॥
उपशम सम्यक्त्वाला यह जीव उपशान्त हुए अनन्तानुबन्धि कषाय के क्रोधादि में कोई भी एक कषाय का उदय होने के कारण जो साधक उपशम सम्यक्त्वरूपी शिखर
पर आरूढ था वह वहाँ से पतित होता है— गिरता है । अर्थात् श्रद्धा से पथभ्रष्ट - पदच्युत होता है । ऐसा जीव जब तक अध्यवसाय - परिणाम की धारा मिथ्यात्व की नहीं बना लेता है। अर्थात् मिथ्यात्व के भूमितल पर नहीं आ जाता है तब तक वह सास्वादन वृत्तिवाला बनता है । भले वह काल मात्र १ से ६ आवलिका का हो । जघन्य समय १ आवलिका का है और उत्कृष्ट काल ६ आवलिका मात्र का
आध्यात्मिक विकास यात्रा