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यहाँ सास्वादन पर उदय हो जाता है परन्तु अभी भी मिथ्यात्व का भाव प्रगट नहीं हुआ है । अतः मिथ्यात्वी जीव की अपेक्षा ऊँचा है । दूसरे सास्वादन गुणस्थान पर असंख्यात जीव होते हैं । अतः अल्पत्व में उनका क्रम ८ वाँ और बहुत्व में ५ वाँ क्रम आता है । यहाँ चारों गति के जीव आते हैं। नरक गति के नारकी, तिर्यंचगति के पशु-पक्षी के जीव, मनुष्य तथा देवता चारों गति के सभी जीव सम्यक्त्व पा सकते हैं । अतः गिरते समय यहाँ आते हैं । इस दूसरे गुणस्थान से मिथ्यात्व के पहले गुणस्थान पर ही गमन होता है और आगमन चौथे गुणस्थान से होता है । चढते समय के क्रमसे कोई भी जीव मिथ्यात्व के पहले गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान पर नहीं आता है । सीधे ३ रे - ४ थे ही जाता है । अतः इस गुणस्थान को उत्क्रान्ति नहीं कहा जाता । विकास का नहीं यह तो पतन का है. उत्थान कर्म का नहीं है । अपक्रान्ति का है जैसे सूर्यास्त के पश्चात् रात्रि का अन्धेरा छा जाने के बीच के सन्धि काल जैसा है। धवला टीका में संक्षिप्तीकरण में “सान” नाम दिया गया है । स्याति धातु छेदन अर्थ में है उससे ‘सान' शब्द बनाया है । “स” सहित “आन" अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय से जो सहित है। वह सास्वादन गुणस्थानवाची शब्द है। अनन्तानुबंधी कषाय की किसी एक प्रकृति का उदय होने से मिथ्यात्व की रुचि के कारण जीव यहाँ आ जाता है । सम्यग् दर्शन गुणस्थान की अव्यक्त अतत्त्वश्रद्धान रूप परिणति यहाँ रहती है। आय अर्थात् लाभ, प्राप्ति और सादन अर्थात् नाश = सास्वादनं शब्द • बनाता है।
गुणस्थानों पर बाह्य आभ्यंतर, परिवर्तन
आध्यात्मिक विकास यात्रा के इन १४ गुणस्थानों रूपी सोपानों की बनी हई सीढी पर मुख्य रूप से ४ प्रकार के महात्मा रहते हैं । १) मिथ्यात्वी, २) सम्यक्श्रद्धालु ३) व्रती श्रावक, और ४) साधु । बस, इस ४ कक्षा के महात्मा इन गुणस्थानों पर रहते हैं। इनमें मिथ्या = विपरीत वृत्तिवाला मिथ्यात्वी जीव पहले गुणस्थान पर रहते है । ४ थे और ५ वे गुणस्थान पर सम्यक्त्वी रहता है । दूसरा व तीसरा इनकी मिश्रित एवं पतित अवस्था है । तथा ५ वे गुणस्थान पर व्रती श्रावक रहता है । तथा छटेसे १४ वे गुणस्थान तक नौं गुणस्थान पर साधु रहता है । नौं गुणस्थान साधु के लिए हैं। इन पर साधु ही रह सकता है । ये निश्चित स्थान हैं । इन इन गुणस्थान की यह नियत अवस्था है । वही-वैसा बना हुआ साधक ही उस उस गुणस्थान का अधिकारी है । जी हाँ, ... साधु में भी और आगे बढते हुए ध्यानी, योगी की कक्षा प्राप्त करें, अन्त में योगी से अयोगी बनकर मुक्त सिद्ध
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
१९७५