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________________ बोल ही नहीं सकते हैं । ये कुछ भी बोल देते हैं। इनकी बात को पकडकर यदि कोई अन्दर का रहस्य पूछ ले तो वह गडबडा जाएगा। डगमगा जाएगा। विचलित होकर कुछ भी कह देगा । जैसे पानी में दूध या दूध में पानी मात्रा में ज्यादा हो तो क्या कहेगा ? अब ऐसा कोई शब्द ही नहीं है अतः क्या करना ? मिश्रगुणस्थानवर्ती का आयुबंध कहाँ ? आयुर्बध्नाति नो जीवो, मिश्रस्थो म्रियते न वा । सद्दृष्टिर्वा कुदृष्टिर्वा, भूत्वा मरणमश्नुते सम्यग्मिथ्यात्वयोर्मध्ये, ह्यायुर्येनार्जितं पुरा । म्रियते तेन भावेन, गतिं याति तदाश्रिताम् ॥ १७ ॥ गुणस्थान क्रमारोहकार कहते हैं कि ... ३ रे मिश्र गुणस्थान में कोई जीव आगामी जन्म योग्य नया आयुष्य बांधता नहीं है । इसी तरह इस गुणस्थान पर मरता भी नहीं है । परन्तु यहाँ से ४ थे गुणस्थान पर जाकर मृत्यु पा सकता है, या फिर १ ले गुणस्थान पर जाकर मृत्यु पाता है । परन्तु ३ रे मिश्र गुणस्थान पर रहकर मृत्यु पाना संभव नहीं है। मिश्र गुणस्थान पर १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान से चढते समय जीव आते हैं । और गिरते समय ऊपर से आते आते ... ४ थे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से भी यहाँ तीसरे गुणस्थान पर आते हैं । इस तरह चढते हुए और गिरते हुए दोनों अवस्था में यह ३ रा गुणस्थान आ ही जाता है । तीसरे गुणस्थान पर आने के पहले कोई भी जीव यदि मिथ्यात्व या सम्यक्त्व से कहीं से भी आयुष्य नया बांधकर साथ ले आए तो यहाँ के मिश्रभाव का अनुभव करके अर्थात् ३ रे गुणस्थान पर जाने के पश्चात् पुनः मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के ही भाव में मृत्यु पाकर तदनुसार गति में जाता है । ॥ १६ ॥ ३ रे मिश्र गुणस्थान पर जीव... तिर्यंचत्रिक, स्त्यानर्द्धित्रिक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय ४ अनन्तानुबंधी आदि ४ मध्य संस्थान ४ मध्य संघयण, नीच गोत्र, उद्योत, अशुभविहायोगति और स्त्रीवेद इन २५ प्रकृतियों का बंध विच्छेद होने से तथा मनुष्यायुष्य और देवायुष्य इन २ आयुष्यकर्म का अबंध होने से ७४ प्रकृतियाँ कर्म की बांधता है । ११६८ तथा ४ अनन्तानुबंधी, स्थावर, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियत्रिक इन ९ प्रकृतियों का उदय विच्छेद हो जाने से देवानुपूर्वी, नरकानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी का उदय न होने के कारण तथा मिश्र मोहनीय कर्म का उदय होने के कारण १०० प्रकृतियों के उदयवाला आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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