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________________ जह गुडदहीणि महियाणि, भाव सहिआणि हुंति मीसाणि । भुंजं तस्स तोभय तहिट्ठी मीसदिट्ठी य ॥ १ ॥ जिस तरह गुड और दहीं मिश्रित करके खाने पर मिश्र रसवाला स्वाद लगता है ठीक उसी तरह मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन दोनों की मिश्रितावस्थावाले - मिश्र विचारधारावाले जीव बनते हैं । ऐसे दृष्टान्तरूप सेंकडों जीव मिलेंगे। जो क्षणभर में सर्वज्ञभाषित सत्य तत्त्व आत्मा - मोक्षादि को मानने की श्रद्धा व्यक्त करते हुए दिखाई देंगे लेकिन दूसरी क्षण कहेंगे- नहीं नहीं, किसने देखा है आत्मा को और किसने देखा है मोक्ष को ? अभी सर्वज्ञ परमात्मा के मंदिर दर्शन - पूजा की और स्तुति में कहा कि- " त्वमेव जिन, वीतरागस्त्वमेव” हे प्रभु! आप ही वीतराग हैं। और तुरंत दूसरे छद्मस्थ - रागी -द्वेषी के . मंदिर में वहाँ जाकर उनकी भी पूजा - भक्ति करते हुए उनकी स्तुति में भी ऐसा ही कुछ कहेगा- हे प्रभु ! आपसे बढकर महान - बडे कोई भगवान ही नहीं है । I 1 I एक बिल्कुल मिथ्यात्वी जीव साफ कहता है कि आत्मा - मोक्षादि कुछ है ही नहीं । दूसरी तरफ सम्यक्त्वी स्पष्ट कहता है कि आत्मा - मोक्षादि है, बिल्कुल सही बात है कि है | ज्ञानगम्य है । स्वयं सिद्धि करता है । लेकिन इन दोनों के बीच का मिश्रदृष्टि न तो साफ ना कहता है और न ही स्पष्ट हाँ कहता है । वह अलग ही ढंग की मिश्रित भाषा का प्रयोग करके कहता है कि बस, यह शरीर ही आत्मा है । अरे ! स्वर्ग में भौतिक सुख-सम्पत्ति की चरमावस्था की प्राप्ति ही मोक्ष है । बस, इसे ही मानों । अब आप देखिए, इसकी भाषा में ना जैसी बात ही नहीं है लेकिन उसके कहने के शब्दों से न तो आत्मा सिद्ध होती है। और न ही मोक्ष । शरीर को ही आत्मा मान लो ऐसा कह देने मात्र से क्या आत्मा सिद्ध हो गई? कैसे होगी ? शरीर तो आखिर शरीर ही है। यह तो जड साधन है । जीवित शरीर भी शरीर ही हैं, और मृतावस्था में भी उसे शरीर कहकर ही व्यवहार होगा । व्यवहार भेद तो संभव ही नहीं है । फिर दोनों अवस्था में से किस शरीर को आत्मा कहना ? क्या आत्मा के गुणधर्म शरीर में हैं या शरीर के गुणधर्म आत्मा में हैं ? जी नहीं, कुछ भी नहीं । अंशमात्र भी संभव नहीं है। फिर भी बोलने में कुछ भी बोल दिया। ऐसे मिश्रदृष्टि की भाषा या विचार की किसी पर भी दृढता स्थिरता नहीं रहती है। विचारों से वह स्थिर नहीं है । और कभी भी हो नहीं पाता है। ऐसे जीव हमेशा द्वअर्थी भाषा बोलनेवाले होते हैं । इनकी भाषा को सुनकर भी कभी कोई स्थिर स्थायी निर्णय कर ही नहीं सकता है। ये लोग कभी तारतम्य को पाकर, सत्यार्थ समझते हुए... या तत्त्व की गहराई में जाकर तो 1 1 क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११६७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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