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________________ बढती जाती है । कर्म की मात्रा थोडी-थोडी घटती जाती है और वैसे वैसे आत्मगुणों की आत्मशुद्धि की थोडी-थोडी मात्रा बढ़ती जाती है । यद्यपि कर्म की कालिमा रहती है फिर भी वह धीरे-धीरे कम होती ही जाती है। एक मात्र मोहनीय कर्म की कालिमा घटते-घटते १२ वे गुणस्थान पर संपूर्ण क्षय हो जाती है और आत्मा संपूर्ण घातीकर्मरहित बनकर १३ वे गुणस्थान पर सर्वज्ञ वीतराग भगवान बन जाती है । बस, फिर तो १४ वे गुणस्थान के बाद मुक्ति प्राप्त हो जाती है। बस,आठों कर्मों से हित संपूर्ण शुद्ध अवस्था में निरंजन निराकार बन जाती है । जैसे-जैसे कर्मावरण की कालिमा क्षीण-नष्ट होती है वैसे वैसे आत्मशुद्धि होते होते आत्मा ऊपर-ऊपर के विशुद्ध गुणस्थानों पर अग्रसर होती जाती है । परन्तु इस शुद्धि के लिए धर्मसाधना की जरूरत रहती है । बिना धर्मसाधना किये कैसे कर्मक्षय होगा? इससे ख्याल आता है कि धर्म कैसा चाहिए? कौनसा चाहिए? सच तो यह है कि भिन्न भिन्न जो लेबल लगे हुए हैं उनमें से किसी की आवश्यकता नहीं है । हमें तो आत्मधर्म चाहिए । बस, जो आत्मा के कर्मों का क्षय करता हुआ शुद्ध करता जाय । वैसा निर्जराकारक धर्म चाहिए। अतः इस निर्जरा को ही कसोटी का पाषाण मानकर धर्मरूपी स्वर्ण को इसपर कसकर देखकर यदि निर्जरा होती है तो उस धर्म को अपनाना चाहिए । आराधना उपासना उसी निर्जरा धर्म की करनी चाहिए। यही कर्मों की निर्जरा कराता है । निर्जरा की प्रक्रिया से कर्मों का क्षय होकर आत्मशुद्धि होगी। बस, जिस दिन संपूर्ण शुद्धि... सर्वांशिक शुद्धि हो जाय उस दिन सिद्धि हो जाएगी। शुद्धि की समाप्ति... पूर्णता ही सिद्धि की निशानी है। लेकिन इस आत्मा को आखिर उठानी कहाँ से है ? कमल को जैसे कीचड में से निकालना है । ठीक उसी तरह आत्मा को मिथ्यात्व के १ ले गुणस्थान पर से मिथ्यात्वरूपी कीचड में से ऊपर उठानी है। तीसरे गुणस्थान की स्थिति यह तीसरा गुणस्थान पहले की अपेक्षा काफी अच्छा है, उसकी तुलना में । क्योंकि १ ले गुणस्थान में संपूर्ण मिथ्यात्व का ही जो घोर अन्धेरा था उसके स्थान पर अब अंधेरा आधा हो चुका है और अरुणोदय काल में जैसे सूर्योदय, अरुणोदय से पहले की जो लालिमा छाई हुई रहती है, उसी तरह की मिश्रावस्था में मिथ्यात्व भी आधे अंश में रहता है और सम्यग् श्रद्धा का अंश भी इसमें मौजूद रहता है । जैसे प्रभातकाल में जबकि सूर्य निकला भी नहीं है और रात पूरी बीती भी नहीं है । तब क्या कहेंगे? क्या रात कह कर क्षपकोणि के साधक का आगे प्रयाण ११६५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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