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________________ योगी केवली क्षीण मोहा उपशांत मोह सूक्ष्म संच अनिवृत्ति अपूर्वकरण तो प्राप्त नहीं होगा? संभव ही नहीं है। क्योंकि जितना ज्ञान है उसमें से जितना अंश प्राप्त करता जाएगा, और उसके सामने जितना अज्ञान का अंश बचेगा-रहेगा उस हिसाब से कुछ ज्ञान भी है और कुछ अज्ञान भी है । सचमुच यह माप तो कोई नहीं निकाल सकता कि प्रतिदिन पढते-पढते आगे बढते-किस दिन कितना ज्ञान प्रगट हुआ और कितना अज्ञान बचा? मात्रा प्रतिशत में भी निकालना बडा असंभव सा काम है । जी हाँ, सर्वज्ञ के लिए आसान जरूर प्रतीत होता है। किसी अन्य-अन्य जीवों की तुलना करने पर भी एक से दूसरे की भिन्नता का ख्याल आ सकता है। - वैसे ही यहाँ आत्मा जब कर्मग्रस्त है। कर्म की कालिमा को लिये हुए है और फिर उसमें से धर्म करते-करते ऊपर उठती जाएगी, जितने-जितने प्रमाण में आत्मा की शुद्धि बढती जाएगी उतने-उतने प्रमाण में आत्मा गुणस्थानों के एक-एक सोपान चढते चढते आगे बढ़ती ही जाती है । लेकिन पहले गुणस्थान से जैसे ही ऊपर उठती है वैसे तुरंत ही सभी कर्म नहीं खपते हैं । क्रमशः एक एक कर्म की प्रकृति के क्षयोपशम भाव से आत्मा उतनी शुद्ध होती है। इसे यद्यपि आंशिक शुद्धि कहते हैं । फिर भी इतनी भी आवश्यक है। बूंद-बूंद करके सरोवर भरता है इसी न्याय से आंशिक थोडी-थोडी शुद्धि बढते-बढते आत्मा थोडी-थोडी आगे अप्रमत्त. प्रमत्तसयता देशविरत अविरत सास्वादन मिथ्यात्व ११६४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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