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दर्शन मोहनीय
मोहनीय कर्म ↓
चारित्र मोहनीय
मिथ्यात्व मिश्र मोह. समयक्त्व मोह.
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इस प्रकार के दर्शनमोहनीय कर्म के ३ विभागों में तीनों अवस्था साफ है । मिथ्यात्व मोहनी तो बिल्कुल तत्त्व श्रद्धा से विपरीत है । वह तो आत्मा, परमात्मा मोक्षादि किसी भी तत्त्व को अंशमात्र भी मानने के लिए तैयार ही नहीं है । सम्यक्त्व मोहनीयवाला आत्मादि को मानने के लिए तो तैयार है लेकिन मोहनीय से ग्रस्तता इसकी भी है । जबकि तीसरा मिश्र मोहनीयवाला इन दोनों की मिश्र प्रकृतिवाला जीव है । यह दोनों आधा-आधा मानकर चलता है । इसमें न तो पूरी श्रद्धा ही है, न ही पूरी अश्रद्धा, मिथ्यात्व है। लेकिन दोनों की मिश्रित अवस्था बडी अजीबसी रहती है । इस दूसरी मिश्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण जो सम्यक् श्रद्धा के विषय का और मिथ्यात्व अश्रद्धा के विषय का ... . दोनों का मिश्रित भाव जो उदय में आता है, उस समय जीव की जिस प्रकार की जैसी परिणति, या अध्यवसाय की धारा जो बनती है वह इस तीसरे गुणस्थान की बनती है । इसलिए इस तीसरे गुणस्थान का नाम मिश्र गुणस्थान रखा है ।
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इस गुणस्थान का काल मात्र अन्तर्मुहूर्त का है । परिवर्तन तो होता ही रहता है । इस गुणस्थान को समझने के लिए उपरोक्त तीनों भावों को स्पष्ट समझना अनिवार्य है । क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म विभाग की ३ प्रकृतियों के आधार पर तीनों अलग-अलग गुणस्थान हैं । १ ली प्रकृति जो मिथ्यात्व मोहनीय की है उसका बिल्कुल स्पष्ट १ ला गुणस्थान ही
है । ठीक उसी तरह दूसरीं प्रकृति जो मिश्रमोहनीय है उसके लिए तीसरा मिश्रगुणस्थान
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1 और तीसरी प्रकृति जो सम्यक्त्व मोहनीय है उसके लिए ४ था सम्यक्त्व का अविरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थान है। वैसे पहले ही इस बात का जिक्र बार-बार कर चुका हूँ कि पहले गुणस्थान से लेकर १२ वे गुणस्थान पर्यन्त सारी साधना एक मात्र मोहनीय कर्म को खपाने की ही है । अब आप ही सोचिए ८ कर्मों में से यह मोहनीय कर्म कितना भारी-कितना खतरनाक है ? कर्म तो कर्म है । ये १४ गुणस्थान तो इन कर्मों का क्षय करने की साधना की अवस्था विशेष हैं। अब आपही सोचिए, जैसे कि बच्चे को स्कूल में भर्ती किया, और उसने पढना प्रारंभ किया । इतने में ही उसे समस्त ज्ञान सब एक साथ
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क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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