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________________ मोहनीय कर्म का जल सर्वथा संपूर्ण उपशमन हो या क्षय हो जाता है तब साधक ११ वे और १२ वे गुणस्थान पर आरूढ होता है । मोह क्षय / शमन ११ वां गुणस्थान उपशान्त मोह १२ वां गुणस्थान क्षीण मोह 1 ये दोनों गुणस्थान श्रेणी के गुणस्थान हैं । ८ वे गुणस्थान से जिस जीव ने जिस प्रकार की श्रेणी प्रारंभ की हो वह साधक जीव उस गुणस्थान पर जाते हैं । श्रेणी के आधार पर उस उस गुणस्थान पर विभक्त हो जाते हैं । उपशमश्रेणीवाला साधक जीव जो ८ वें से कर्मों का उपशमन ही करता-करता आगे चढता है वह नौंवे से १० गुणस्थान वे. गुणस्थान पर होकर सीधा ११ वे गुणस्थान पर ही आता है। यही शमक जीव का अन्तिम गुणस्थान है । उपशामक का अन्त आता है अतः ११ वाँ गुणस्थान भी अन्तिम कहा जाता है । जबकि क्षपक श्रेणी का जीव केवलज्ञान पाकर मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । इसलिए क्षपक को ११ वे गुणस्थान पर आने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है। वह क्षपक साधक ११ वे गुणस्थान को छोडकर सीधी छलांग लगाकर १२ वे क्षीणमोह गुणस्थान पर जाता है । इसलिए ११ वाँ गुणस्थान उपशम श्रेणीवाले शमक साधक का विश्रांति घर है, स्थान है । ठीक इसी तरह १२ वाँ गुणस्थान क्षपक साधक के लिए विश्रांतिस्थान या घर हैं । उपशमवाला १२ वे कभी जा ही नहीं सकता है और क्षपकवाला कभी ११ वे गुणस्थान पर जाता ही नहीं है । नामकरण की दृष्टि से इस ११ वे गुणस्थान का नाम उपशान्त मोह नाम प्रसिद्ध है । दूसरा वीतराग छद्मस्थ नाम भी है । उपशान्त मोह नाम इस गुणस्थान के कार्य के कारण रखा हुआ है । उपशान्त करना अर्थात् शमाना, या दबाना। वैसे “उप” उपसर्ग समीप अर्थ में है । शान्त करने के समीप में जो पहुँचा है, किसको शान्त करना है ? मोहनीय कर्म को । इसमें भी जो कषाय उछलते कूदते थे उन कषायों को उपशान्त करना है । अतः इस कार्य मुख्यता के कारण उपशान्त मोह नाम सही रखा गया है। दूसरा नाम वीतराग छद्मस्थ का रखा है । यद्यपि सर्व घाती कर्मों का क्षय यहाँ नहीं हुआ है अतः केवली सर्वज्ञ नहीं हुआ । इसलिए छद्मस्थ जरूर कहा जाता है । छद्म का अर्थ है आवरण उसमें स्थित रहनेवाला छद्मस्थ कहलाता है । अर्थात् ज्ञानावरणीयादि कर्मों का आवरण है। दूसरी तरफ वीतराग कहा है । क्योंकि मोहनीयकर्म का यद्यपि जडमूल से सर्वथा क्षय नाश नहीं क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११५९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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