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________________ जीव के उदय में जो भी सुख या दुःख आता है उसे वही जीव भुगतता है । दूसरा भुगते यह संभव ही नहीं है । जैसे मैं खाऊँ तो मेरा ही पेट भरता है दूसरे का नहीं। वैसे ही सुख-दुःख क्या है ? कर्मों का उदय-फल है । इसलिए कर्म के उदय के कारण उसका वेदन–अनुभव वही कर सकता है जिसने उपर्जिन किये हैं। ठीक उसी तरह निर्जरा भी सभी कर्मों की सभी जीव अपने-अपने कर्मों की ही करेंगे। कोई किसी दूसरों के कर्मों की निर्जरा नहीं कर सकता है। यह तो क्षपक श्रेणी करनेवाले क्षपक जीव के ध्यानानल (ध्यानरूपी अग्नि) का सामर्थ्य-प्रबल शक्ति का परिचय कराने के लिए उपमा मात्र दी इस १० वे गुणस्थान पर कर्म बंध के हेतु सिर्फ दो ही रहते हैं । कषाय और योग । कषाय में तो मात्र संज्वलन लोभ । और योग में मन, वचन, काया तीनों बंध हेतु है जरूर है, लेकिन ये तीनों भी कषायादि की तीव्रता न हो तो बिचारे क्या करेंगे। आखिर कपडा तो धागे से सिया जाएगा। लेकिन सूई न हो तो अकेला धागा भी बिचारा क्या करेगा? धागे को आगे बढाने का काम तो सूई का है। ठीक उसी तरह मनादि योगों को प्रवृत्त करने का काम तो कषायों का है। कषाय भाव न रहने से ये योग नरम-ढीले पड जाते हैं। फिर तो कोई सवाल ही नहीं रहती है । अथवा विस्तार से बंध हेतु के भेद-प्रभेद १० होते हैं । उनमें- ९ तो योग के और १ सू. लोभ का है इस तरह १० होते हैं। इस तरह यह १० वाँ गुणस्थान है । इसका काल जघन्य से १ समय का और उत्कृष्ट से १ अन्तर्मुहूर्त का है । यहाँ सत्ता की अपेक्षा से आठों कर्म सत्ता में पड़े हैं। यहाँ आयुष्य और मोहनीय कर्म इन २ को छोडकर शेष ६ कर्मों का बंध होना संभव है । वेदन और उदय आठों कर्मों का होता है । ८ में से ५ या ६ कर्मों की उदीरणा होती है । मोह, आयु और वेदनीय कर्म इन ३ को छोडकर ५ की उदीरणा करता है । निर्जरा आठों कर्मों की करता है । लेश्या तो हमेशा ही यहाँ शुक्ल रहती है । यहाँ १ समय में २०० से ९०० जीव होते हैं। ११ वा उपशान्त मोह गुणस्थान कदक-फलजुदजलं वा, सरए सखाणियं वणिम्मलयं । सवलोवसंतमोहो, उवसंतकसायओ होदि ।।६१॥ गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहते हैं— निर्मली फल से सहित स्वच्छ जल के समान अथवा शरदकालीन सरोवर-जल के समान सर्व मोहोपशमन के समय व्यक्त होनेवाली वीतराग दशा को उपशान्त मोह गुणस्थान कहते हैं। ११५८. आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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