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________________ क्षपक की अमाप शक्ति क्षपक श्रेणी पर आरूढ हुए महात्मा की क्षय करने की शक्ति कितनी असीम और अमाप है इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । इसके लिए प्रशमरतिकार महर्षि यहाँ तक लिखते हैं कि.... सर्वेन्धनैकराशी कृत सन्दीप्तो हनन्तगुणतेजाः । ध्यानानलस्तपः-प्रशम-संवरहविर्विवृद्धबल: . ॥२६३ ।। क्षपकश्रेणीमुपगतः स समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म । क्षपयितुमेको यदि कर्म संक्रमः स्यात्परकृतस्य ॥२६४॥ क्षपक श्रेणी पर आरूढ हुए क्षपक महात्मा जगत् के समस्त काष्ठों को इकट्ठे करके यदि उनमें अग्नि प्रगटायी जाय तो वह प्रचंड अग्नि जिस तरह समस्त काष्ठों को भस्मीभूत कर दे, ठीक उसी तरह क्षपक श्रेणी के क्षपक महात्मा की ध्यानरूपी अग्नि इतनी ज्यादा प्रबल कक्षा की होती है कि उसमें जगत के समस्त जीवों के कर्मों को भी लाकर उलेच दिया जाय तो सबका क्षय एक साथ कर सकता है । इतना सामर्थ्य होता है । ध्यानरूपी अग्नि, तप, प्रशान्तरस और संवर का सबका इतना प्रबल सामर्थ्य है कि... जगत् की समस्त आत्माओं के कर्मरूपी इन्धन को इकट्ठे करके....और ध्यानरूपी अग्नि प्रज्वलित करके तथा प्रशम-संवर रूपी घी की आहुति डालकर अग्नि को प्रबल-प्रज्वलित की जाय तो जगत के समस्त जीवों के कर्मों को जलाकर भस्मीभूत कर सकता है । यह उपमा देकर सामर्थ्य का परिचय दिया है । परन्तु वैसा होता नहीं है। परकृतकर्मणि यस्मान्नाक्रामति संक्रमो विभागो वा। तस्मात्सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वद्यम् ॥ २६५ ।। एक जीव के द्वारा किये हुए कर्मों का अन्य जीव ने किये हुए कर्मों में संपूर्ण या आंशिक भी संक्रमण हो सकता हो ऐसा कभी भी होता ही नहीं है। संभव ही नहीं है। अतः जो कर्म जिस जीव के हो उन कर्मों को वही जीव क्षय कर सकता है । अन्य नहीं। एक जीव के कर्म उसी को भुगतने भी पडते हैं अन्य को नहीं। इस नियम के आधार पर कोई भी जीव दूसरे जीवों के कर्मों को भुगत नहीं सकता है और क्षय भी नहीं कर सकता है। जो भी कोई करेगा वह अपने स्वयं के ही कर्मों का क्षय कर सकता है। यही नियम बडा भारी है। ऐसा नहीं होता तो तीर्थंकर की आत्मा जगत् के समस्त जीवों के कर्म खपाकर मोक्ष में ले जाती । लेकिन यही असंभव है । ऐसा हो ही नहीं सकता है । जिस क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११५७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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