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________________ 1 मेहनत के बाद छूट सकता है। वैसा इस कक्षा का लोभ साल भर बाद कम होना संभव है । ३) प्रत्याख्यानीय कक्षा के लोभ को काजल के रंग के जैसा बताया है । जैसे माँ अपने बच्चे की आँख में काजल डाले और वह थोडी बाहर आ जाय तो उसे साफ करने में जैसे कष्ट होता है, वैसे ही साधक को इस कक्षा के लोभ को निकालने में ४ मास से भी अधिक समय लग सकता है । ४) चौथा संज्वलन कक्षा का लोभ हल्दी के रंग जैसा है । यह बिल्कुल कच्चा रंग होता है । यद्यपि हल्दी का पानी कपडे पर गिर जाय तो जो रंग लग I भी जाता है उसे पुनः धोया जाय.... . या धूप में सुखाया भी जाय तो बहुत जल्दी उड जाता है । यहाँ तक ये चारों स्थूल कक्षा के लोभ थे अतः स्थूल रंग के साथ इसकी तुलना - उपमा ई है। अब सूक्ष्मता को समझाने के लिए ... रेशमी वस्त्र पर जैसे हल्दी का हल्का सारंग लगा हो उसे धो देने से या धूप में सुखाने से रंग उड जाता है। लेकिन उसके पश्चात् भी हल्का सा पीलापन जो दृष्टिपथ में भी न आए वैसी हल्की सी आभा नाम मात्र की जो है वैसा यहाँ सूक्ष्म लोभ कहते हैं । १० वे गुणस्थान पर इतना अंशमात्र भी लोभ निकालने का प्रयत्न करना है । आखिर तो मोहनीय कर्म की यह भी एक प्रकृति है । कषाय मोहनीय • प्रकृति है । कषाय में की गई है। यह राग का घर है । मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं । यहाँ क्षय करने की दृष्टि से क्षपक साधक जो क्षय करता है उसके लिए ... क्षय करने के क्रम में यह अन्तिम कर्मप्रकृति है । वैसे पहले . पहले .. .. जिन भारी कर्म की प्रकृतियों को क्षय करने के लिए जितना भारीपन लगता था अब इस अन्तिम लोभ की प्रकृति का क्षय करने में इतनी ही आसानी - सरलता लगती है। आपको यह भी जानकर आश्चर्य होगा कि ९ वें अनिवृत्ति गुणस्थान पर क्षपक साधक ने मोहनीय कर्म की १२ प्रकृतियाँ क्षीण कर दी. . खपा दी जबकि मात्र १ लोभ की प्रकृति और वह भी सूक्ष्म की कक्षा के लोभ को खपाने के लिए स्वतंत्र से १० वाँ गुणस्थान करना पडा । नौंवे गुणस्थान पर भी एक ही अंतर्मुहूर्त का काल अधिक से अधिक था और १० वे गुणस्थान पर भी उतना ही काल है। नौंवे पर जितने काल में १२ कर्मप्रकृतियाँ मोहं की खपाई उतना ही काल सूक्ष्म की कक्षा के लोभ को खपाने में १० वे गुणस्थान पर लगा । जबकि लोभ सूक्ष्म की कक्षा का है, फिर भी इसके लिए क्षपक श्रेणीवाले महात्मा को स्वतंत्र से इतना समय लगा । अर्थात् कल्पना कीजिए, सूक्ष्म लोभ भी कितना भारी होगा। यद्यपि इसी लोभ की स्थूल (बादर) स्थिति का क्षय तो नौंवे गुणस्थान पर ही कर दिया था। अब तो मात्र सूक्ष्मांश ही बचा है । फिर भी कितनी कठिनाई पडती है क्षपक जैसे महात्मा को । ११५६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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