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श्रेणी करनेवालों का है । कार्य सूक्ष्म लोभ पर ही करना है । क्षपकवाला अपने स्वभाव के अनुरूप जडमूल से क्षय करने का काम करता है जबकि शमक साधक अपने स्वभाव के अनुरूप उसी लोभ का शमन करता है। तथा पतन के समय भी १० वाँ गुणस्थान आता है और उत्थान-चढने के समय भी आता है । अतः ३ बार इस गुणस्थान का स्पर्श होता है। उपशम श्रेणीवाले के लिए चढते और उतरते दोनों समय होता है। जबकि क्षपक तो कभी गिरता ही नहीं है अतः सिर्फ चढते समय ही होता है । इसलिए ३ बार इस १० वे गुणस्थान पर जीव आता है।
धुवकोसुंभयवत्थं, होहि जहा सुहमरायसंजुत्तं ।
एवं सुहुमकसाओ, सुहमसरागोत्तिणादव्वं ॥ गो. जी. । गोम्मटसार के जीवकांड में सूक्ष्मता की तुलना करने के लिए दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि- जैसे किसी रेशमी वस्त्र पर कसुंबी रंग चढाया जाय और धोने पर जैसे कच्चा रंग उतर जाय क्योंकि रेशमी वस्त्र की चिकनाहट के कारण कच्चा रंग जल्दी से उतर जाता है। फिर भी अन्त में रंग की जो लालिमा शेष रह जाती है ठीक उसी तरह स्थूल लोभ तो रंगे हुए कपडे के जैसा है। जबकि सूक्ष्म लोभ धोए हुए वस्त्र के जैसा है। उसकी आभा मात्र है। वैसे भी कर्मग्रन्थकार महर्षियों ने लोभ को रंग की उपमा देकर ही दर्शाया है। अनन्तानुबंधी आदि चारों प्रकार के लोभ कैसे होते हैं उसके लिए रंग के ४ दृष्टान्त दिये
हैं । यह इस चित्र को देखने से ख्याल आ जाएगा। १) पहला अनन्तानुबंधी लोभ कीरमची के पक्के रंग के जैसा है। यह कपडे का जलने के बाद ही रंग छूट सकता है । इसके सिवाय तो कभी भी छूट ही नहीं सकता है । ठीक वैसा लोभ अनन्तानुबंधी का है । चाहे यह जन्म पूरा भी हो जाय तो भी यह लोभ नहीं जाता है। २) अप्रत्याख्यानीय लोभ तो बैलगाडी के चक्के की काली मली जैसा है। वह भी यदि कपडे पर लग जाय तो कितना भी प्रयत्न करने के पश्चात् वर्ष भर की
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क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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