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प्रकृतियों का अनिवृत्ति नौंवे गुणस्थान के प्रथम भाग में क्षय करता है । तथा अप्रत्याख्यानीय ४ और प्रत्याख्यानीय ४ इस तरह ८ मध्य के कषायों का दूसरे भाग में क्षय करता है । ३ रे भाग में नपुंसकवेद का क्षय करता है । ४ थे भाग में स्त्रीवेद का क्षय करता है । ५ वे भाग में- हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा ये ६ प्रकृतियाँ क्षय जाती है। अब छट्ठे से नौंवे तक के ४ भाग में ध्यान की अत्यन्त निर्मलता के आधार पर - पुरुषवेद, संज्वलन, क्रोध, सं. मान, सं. माया का क्षय करता है । छट्ठे भाग में पुरुषवेद, ७ वे भाग में संज्वलन क्रोध, ८ वे भाग में सं. मान, ९ वे भाग में संज्वलन माया का इस क्रम से क्षय करता है ।
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इस नौंवे गुणस्थानवर्ती साधक हास्य, रति, भय, और जुगुप्सा इन ४ प्रकृतियों का बंध विच्छेद होने से २२ प्रकृतियों का बन्धक, तथा हास्यादि ६ उदयविच्छेद से ६६ प्रकृतियों का उदयवाला भी होता है । तथा नौंवे भाग में संज्वलन माया तक की ३५ प्रकृतियों का सत्ता विच्छेद (क्षय) होने से १०३ प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।
१० वाँ - सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान
ततोऽसौ स्थूललोभस्य, सूक्ष्मत्वं प्रापयन् क्षणात् । आरोहति मुनिः सूक्ष्म - सम्परायं गुणास्पदम् ॥ ७२ ॥
इस तरह नौंवे गुणस्थान पर कर्मप्रकृतियों का क्षय करता हुआ क्षपक साधक ... एक स्थूल (बादर) लोभ का क्षणभर में सूक्ष्मीकरण करता हुआ १० वे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान पर आता है। नौंवे गुणस्थान के अन्त में (नौवे भाग के अन्त में पुरुषवेद और संज्वलन चतुष्क क्रोधादि ४ इन ५ प्रकृतियों का बन्ध विच्छेद होने से १७ प्रकृतियों का बन्धक होता है । ३ वेद, तथा + ३ संज्वलन कषाय इन ६ प्रकृतियों का उदय विच्छेद होने से ६० प्रकृतियों का उदयवाला होता है । तथा माया की सत्ता का विच्छेद नौंवे भाग अन्त में होने से १०२ प्रकृति की सत्तावाला होता है ।
१० वे गुणस्थान पर संज्वलन की कक्षा के लोभ नामक कषाय के सूक्ष्म किट्टीरूप से किये हुए सूक्ष्माणुओं को जीव क्षीण करके खपाता है । इस गुणस्थान पर सूक्ष्म लोभ का उदय होता है और करने का कार्य भी इसी का क्षय करने का है अतः इसका नाम भी इसके अनुरूप ही रखा है। यहाँ कषाय और संपराय शब्द दोनों समानार्थक पर्यायवाची हैं । अतः सूक्ष्म कषाय कहो या सूक्ष्म संपराय कहो बात एक ही है। इसी लोभ संपराय का उदय है और इसी का क्षय करना है । यह १० वाँ गुणस्थान श्रेणी का है अतः दोनों
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आध्यात्मिक विकास यात्रा