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________________ ऐसे निर्मल विशुद्ध अध्यवसायों के द्वारा नौंवे गुणस्थान पर स्थित महात्मा आयुष्यकर्म के सिवाय अन्य सातों कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा, स्थिति खंडन, गुणसंक्रमण आदि करता है । इस गुणस्थान के प्रथम समय में जो अध्यवसाय की विशुद्धि होती है वह दूसरे, तीसरे, चौथे समय में क्रमशः अनन्तगुनी बढती ही जाती है। इस तरह अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त क्रमशः प्रत्येक समय पर जाननी चाहिए। इस गुणस्थान का संपूर्ण स्थितिकाल उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त का ही है। जबकि जघन्य एक समय का है । जैसे जैसे कषायों की मंदता बढती जाती है वैसे-वैसे अध्यवसायों की विशुद्धि बढती ही जाती है । ८ वें की अपेक्षा भी नौंवे गुणस्थान की विशुद्धि तुलना में अनेक गुनी ज्यादा, इससे परिणामों की समानता बन पाती है । दोनों श्रेणीवाले साधकों के लिए चढते समय भी यह नौंवा गुणस्थान काफी अच्छा उपयोगी होता है । तथा क्षपक श्रेणीस्थ साधक तो पुनः गिरता ही नहीं है । उपशम श्रेणीवाला साधक ऊपर से १० वे से गिरता हुआ भी वापिस यहाँ नौंवे में आता है । स्वाभाविक ही है कि चढते हुए क्रमवाले गुणस्थान पर आरूढ होनेवाले की अध्यवसाय विशुद्धि अनन्त गुनी ही होती है। लेकिन गिरनेवाला जब गिरेगा तो अध्यवसाय स्थानों I विशुद्धि का प्रमाण भी गिरता ही मिलेगा । यहाँ से गिरते गिरते पहले मिथ्यात्व तक भी पहुँच सकता है । वैसे यहाँ आठों कर्मों की सत्ता होती है । ७ कर्मों का बंध होता है । (आयुष्य रहित) । आठों कर्मों का वेदन भी है तभा उदय भी है। आयु तथा मोह रहित ६ या ७ कर्मों की उदीरणा होती है । आठों कर्मों की निर्जरा होती है । अल्पत्व और बहुत्व की दृष्टि से अल्पत्व में ३ रा तथा बहुत्व में १० वाँ क्रम आता है। एक समय में जघन्य २०० और उत्कृष्ट से ९०० जीव हो सकते हैं । aa at विभागो में क्षय प्रवृत्ति अनिवृत्तिगुणस्थानं... ६७, ६८, ६९, ७० मानो - माया च नश्यति ॥ ७१ ॥ गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकर्ता ६७ से ७१ वे श्लोकपर्यन्त पाँच गाथा में लिखते हैं कि नौंवे अनिवृत्ति गुणस्थान के ९ भाग (विभाग) करता है क्षपक साधक और एक-एक विभाग में कर्मों का क्षय इस प्रकार करता है— नरकगति, तिर्यंचगति तथा इन २ गतियों की २ आनुपूर्वी, साधारण नामकर्म, उद्योत, सूक्ष्म, द्विन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिय जाती, और चउरिन्द्रिय जाति, एवं एकेन्द्रियजाति, आतपनामकर्म, स्त्यानगृध्यादि ३ अर्थात्-- निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, और थीणद्धि तथा स्थावरनामकर्म इन १६ कर्म क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण • ११५३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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