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________________ उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं कि...(केशी-गौतम के संवाद अध्ययन में) एक राजा रूप, मन को जीत लें तो चारों कषायों को, पाँचों इन्द्रियों को, सब को जीत सकते हैं। इस तरह सब शत्रुओं को जीत सकते हैं। ____ ठीक उसी तरह आत्मा नामक राजा के लिए कर्म ही उसके मूलभूत अंतर शत्रु है। इनमें ८ कर्म हैं । आठों में एक मात्र मोहनीय कर्म ही राजा है। पहले भी कह आए हैं कि ... १४ गुणस्थानों में पहले से लेकर १२ वे गुणस्थान तक एकमात्र मोहनीय कर्म खपाने का ही काम होता है । चाहे क्षपक श्रेणीवाला काम करे या चाहे उपशमश्रेणीवाले काम करे तो भी दोनों के लिए एक मात्र मोहनीयकर्म को ही खपाने का मुख्य कार्य है । लक्ष्य एक ही है। सिर्फ दोनों श्रेणीवालों की कार्यप्रणाली में अन्तर है । एक शमाता है और दूसरा खपाता है । परन्तु अभी लक्ष्य में कर्म एक ही मोहनीय है । इस तरह कर्मक्षय करते हुए नौंवे गुणस्थान पर बहुत बड़ा काम किया है १२ कर्मप्रकृतियाँ मोहनीय की खपाने का। अब एक प्रकृति संज्वलन के घर का लोभ मोह० खपाने के लिए १० वे गुणस्थान पर जाना पडेगा। ' नौंवे अनिवृत्तिगुणस्थान पर शक्ल लेश्या होती है । यहाँ आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता है । परन्तु शेष ७ कर्मों का बंध बताया है । क्षपक श्रेणीवाले क्षपक का आयुष्य इस गुणस्थान पर समाप्त नहीं होता है। क्षपक श्रेणी प्रारंभ करनेवाला क्षपक योगी तो केवलज्ञान और मोक्ष पाकर ही रहेगा। उपशम श्रेणीवाले शमक को इस गुणस्थान पर जो परिणाम होते हैं उससे अनेक गुनी विशुद्धि क्षपकश्रेणीवाले साधक की इस गुणस्थान पर होती है। इस नौंवे गुणस्थान पर समानवी जीवों के परिणामों की विशुद्धि समान ही होती है। परन्तु उनमें परस्पर निवृत्ति अर्थात् भेद नहीं होता है । अतः इस गुणस्थान पर स्थित महामुनियों के परिणामों को अनिवृत्तिकरण कहते हैं । इस अनिवृत्तिकरण का जितना काल होता है उतने ही उनके परिणाम होते हैं । अतः प्रत्येक समय में एक ही परिणाम होता है । इसी कारण से भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में सर्वथा विसदृशता (भिन्नता) होती है । और एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में सदृशता (समानता) अभिन्नता होती है । ओहो ! सर्वज्ञ जिनेश्वर प्रभु की कितनी महानता, सर्वज्ञता है कि... प्रभु ने परिणामों की कितनी सूक्ष्म बात स्पष्ट की है ! यह सर्वज्ञ के अतिरिक्त जगत् में अन्य कोई कर ही नहीं सकता है । सच ही है कि सर्वज्ञता के बिना कहना संभव ही नहीं है । ११५२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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