SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गिनी है। एक ही गिनी है । यह तो नौंवे गुणस्थान पर मोहनीय की सब प्रकृतियाँ जो क्षय कर रहे थे उनमें लोभ को खपाने का काम इतना बडा था कि ... खाते-खाते अधिकांश भाग तो खप चुका लेकिन कुछ सूक्ष्म भाग शेष रह गया और नौंवे गुणस्थान का काल समाप्त हो गया और साधक १० वे गुणस्थान पर आ गया । अब यहाँ स्वतंत्र रूप से सूक्ष्म लोभ को खपाने की मेहनत करते हैं । इस तरह अधिक से अधिक सर्वाधिक मोहनीय कर्म की १२ प्रकृतियाँ नौंवे गुणस्थान पर क्षीण होती है तो ठीक इसके विरुद्ध १० वे गुणस्थान पर सिर्फ एक ही (सूक्ष्म) लोभ कषाय की प्रकृति खपाता है। I कम से कम प्रकृति खपाता है । इस तरह २८ वीं अंतिम लोभ की प्रकृति यहाँ नष्ट हो जाने पर २८ प्रकृतियाँ मोहनीय कर्म की समाप्त होती हैं । बस, एक मुख्य कर्म समाप्त होता है । गुणस्थानों पर मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय इस तरह सब कर्मों में मुख्य राजा रूप जो मोहनीय कर्म था उसका संपूर्ण - सर्वथा मूल से ही क्षय कर दिया है। बस, अब सारा खेल आसान है । आप भी अच्छी तरह जानते ही हैं कि युद्ध के मैदान में यदि एक राजा को जो जीता जाय बाद में दूसरे सबको जीतना तो जैसे फूंक मारने जितना आसान काम है । बात भी सही है कि एगे जिए जिआ पंच, पंच जिए जिआ दस । ॥ 1.. केवली क्षीण माह उपशांत मोह → सूक्ष्म संपराय १ संज्वलन कषायादि १२ सूक्ष्म संप क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण अनिवृत्ति अपूर्वकरण अप्रमत्त. प्रमत्तसंयत प्रत्याख्यानी ४ कृषाय देशविरत अविरत अप्रत्याख्यानी ४ कषाय मिश्र सास्वादन अनन्तानुबंधी सात मिथ्यात्व ११५१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy