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________________ गुणस्थान पर करता है । क्रोध, मान और माया इन तीन कषायों को तो सर्वथा जडमूल से क्षय कर भी देता है साधक । लेकिन लोभ बडा भारी पहाडसा लगता है । उसमें भी स्थूल लोभ को तो नौंवे गुणस्थान पर ही क्षय कर देता है परन्तु जो शेष बच जाता है उस सूक्ष्म लोभ के लिए साधक को १० वे गुणस्थान पर जाना पडता है । तब इसको हटाने का काम वहाँ होगा। दूसरी तरफ नौंवे गुणस्थान पर हास्यादि ६ कर्मप्रकृतियों को जडमूल से क्षय करता है। बस, अब हँसना, रोना, किसी भी प्रकार की वस्तु पसंद-नापसंद, प्रिय-अप्रिय का कोई प्रश्न ही नहीं । अब भय का कोई काम ही नहीं रहता । अतः सर्वथा निर्भय, अभयदाता बन जाता है साधक । शोक तथा जुगुप्सा भी चली जाती है । अशोक की सर्वश्रेष्ठ स्थिति यहाँ आ जाती है । अब किसी की दुर्गंछा भी नहीं रहती है। इस तरह हास्यादि नोकषाय की सारी प्रकृतियाँ यहाँ पर क्षीण हो जाती हैं । अतः यह नौंवा गुणस्थान मूल कषाय की अपेक्षा नौ नोकषाय मो० को खपाने की प्रधानतावाला गुणस्थान है । नोकषाय की हास्यादि 1 प्रवृत्ती मूल से जाने के पश्चात् अब साधक प्रत्येक बात में इतना गंभीर बन चुका है कि... किसी स्त्री के सामने हो या किसी शेर - सिंह के सामने भी हो तो भी रत्ती भर हंसी, खुशी या चिंता, भयादि का नाम - या अंशमात्र भी नहीं रहता है । इस तरह मोहनीय कर्म की सबसे ज्यादा प्रकृतियाँ एक ही गुणस्थान पर खपाने का सबसे बडा श्रेय यदि किसी को मिलता है तो वह एक मात्र नौंवे गुणस्थान को ही मिलता है । वैसे देखा जाय तो १ ले गुणस्थान से लगाकर सभी गुणस्थान मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ ही खपाते - उपशमाते हैं । १ ले गुणस्थान से ४ थे पर आते समय ७ (अनं-४ + दर्शन मो० की ३ = ७) प्रकृतियाँ शमाई थी । ५ वे पर आते ४ अप्रत्याख्यानीय की, ६ट्ठे पर आते ४ प्रत्याख्यानीय की मोहनीय की प्रकृतियाँ शमायी थी । इस तरह ७+४ +४= १५ कर्म प्रकृतियाँ मोहनीय की श्रेणी के प्रारंभ के पहले ही खप (या शम) चुकी है । ८ वे गुणस्थान से श्रेणी के श्रीगणेश तो हो चुके हैं, लेकिन कर्म प्रकृतियों का क्षय (शमन करने का कार्य तो नौंवे गुणस्थान से प्रारंभ होता है । इसलिए श्रेणी का कार्य नौंवे गुणस्थान से होता है ऐसा कहते हैं । यहाँ ६ स्थूल कषाय और नौं नोकषाय की इस तरह १२ कर्म प्रकृतियाँ मोहनीय की शमाता या खपाता है। अब १५ + १२ = २७ कर्म प्रकृतियाँ तो चली गई । आप जानते ही हैं कि मोहनीय कर्म की कुल २८ कर्म प्रकृतियाँ ही मुख्य हैं । उनमें से २७ चली गई अतः (२८ - २७ = १) सिर्फ १ ही प्रकृति बची है । वह है सूक्ष्म लोभ की। वैसे सूक्ष्म और स्थूल की कहीं कषायों की २-२ प्रकृतियाँ नहीं ११५० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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