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________________ 1 आदि बाह्य कारणों से तथा ज्ञानावरणादिक कर्म के क्षयोपशमादि अन्तरंग कारणों से परस्पर भेद पाया जाता है। वैसे जिन परिणामों से परस्पर भेद नहीं पाया जाता, उनको अनिवृत्तिकरण कहते हैं । नौंवे गुणस्थान में उत्पन्न हुए भावोत्कर्ष की निर्मलता अतितीव्र हो जाती है । इस गुणस्थान में विचारों की चंचलता नष्ट होकर उनकी सर्वत्रगामिनि-वृत्ति केन्द्रित और समरूप हो जाती है । इस अवस्था में साधक की सूक्ष्मतम और अव्यक्त काम संबंधी वासना जिसे वेद संज्ञा दी है कर्मशास्त्रों ने उसे जडमूल से नष्टकर देता है साधक । बस, इससे स्त्री-पुरुष के बीच का भेद भी मिट जाता है। कौन स्त्री और कौन पुरुष यह भेद ही नहीं रहता है। काम वासना, विकार और मैथुन के विचारों से सर्वथा ऊपर उठ जाता है । यह इस गुणस्थान की बहुत बडी उपलब्धि (सिद्धि) है । यह नौंवा गुणस्थान श्रेणी का गुणस्थान है । अतः दोनों ही श्रेणियों में इसकी गणना होती है । श्रेणीगत साधक को तो सिर्फ कर्मप्रकृतियों को खपाना ही मुख्य लक्ष्य है। इसमें क्षपक वाला खपाए - क्षय करे और शमक दबाने का काम करे... इसलिए दोनों श्रेणी १) उपशम श्रेणी, और २) क्षपक श्रेणी के लिए यह नौंवा गुणस्थान काम में आता है। उपयोगी सिद्ध होता है । 1 1 प्रधान रूप से इस नौंवे गुणस्थान पर वेद मोहनीय (विषय-वासना की काम संज्ञा मैथुन विषयक) कर्म की प्रकृति जडमूल से क्षय करके जीव प्रथमबार अवेदी या निर्वेदी बन जाता है । जिससे वेद का भेद ही मिट जाता है। अतः स्त्री-पुरुष किसी प्रकार का कोई भेद ही नहीं रहता है । १० वे गुणस्थान को सूक्ष्म संपराय कहा है तो इसके पहले इस नौवे गुणस्थान को बादर संपराय कहा है । बांदर का सीधा अर्थ स्थूल, मोटे या बडे अर्थ में है। संपराय शब्द कषाय अर्थ में प्रयुक्त है । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों जो संज्वलन की कक्षा के हैं इन सब कषायों का क्षय क्षपक जीव यहीं कर लेता है। इसलिए सचमुच तो कषायों की निवृत्ति से साधक निःष्कषायी - अकषायी बन जाता है । अक्रोधी, अमानी, अमायावी बन जाता है । परन्तु अभी सिर्फ लोभ बचा है । उसके भी २ अंश है । स्थूल लोभ और सूक्ष्म लोभ । आश्चर्य इस बात का है कि... क्रोध, मान और माया इन तीनों कषाय का सूक्ष्म - स्थूल का कोई भेद शास्त्रकार महर्षि ने नहीं दर्शाया और सिर्फ लोभ के ही स्थूल और सूक्ष्म भेद किये हैं । १६ प्रकार के कषायों में से १२ प्रकार के कषाय तो पहले ही क्षीण हो चुके हैं। लेकिन सत्ता में जो पडे रहते हैं । उनको जडमूल से क्षय करने का काम साधक यहाँ नौंवे क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११४९ "
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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