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________________ 1 हुआ है फिर भी शमन उपशमन की प्रक्रिया से इतना दबा दिया है कि सत्ता में मोहनीय कषाय रागद्वेषादि सब पडे हुए होते हुए भी उदय में अंशमात्र भी कषायादि दिखाई नहीं देते हैं । इसलिए बाह्य स्वरूप से ऊपर-ऊपर से बहुत अच्छा वीतराग दिखाई देता है । इसलिए वीतरागी कहा जाता है। लेकिन ११ वे गुणस्थान पर वीतराग कहाँ तक दिखाई देगा ? कितनी देर तक ? क्योंकि ११ वे गुणस्थान की उत्कृष्ट काल अवधि ही अन्तर्मुहूर्त की है । इस अन्तर्मुहूर्त काल में आयुष्य पूरा होने की भी संभावना है और न भी हुआ तो ४८ मिनिट का अन्तर्मुहूर्त काल समाप्त होते ही, उसका पतन भी निश्चित ही है। जब तक दबी हुई उपशान्त मोहनीय कर्म की कषाय की प्रकृति का उदय न हो वहाँ तक तो वह वीतराग कहलाएगा। लेकिन जैसे ही उदय हो जाय कि वह गिर जाएगा । उसका पतन हो जाएगा । और नीचे के गुणस्थानों पर गिरता - गिरता कहाँ तक ? अरे ! पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान तक भी चला जाएगा। इस तरह ११ वे गुणस्थान से पतन निश्चित ही है । चाहे वह पतन... कालक्षय से हो या मृत्यु के कारण हो । परन्तु पतन तो निश्चित ही है । जघन्य काल यहाँ का एक समय मात्र ही है । मरण की अपेक्षा गमन ४ थे गुण. पर होता है। दसवे गुणस्थान से यहाँ आगमन होता है । भवक्षय, आयुक्षय से पतन होने पर सीधे ४ थे जाता है । 1 यहाँ इर्यापथिक आश्रव होता है । सांपरायिक आश्रव यहाँ संभव नहीं है । उपशम श्रेणी का जो प्रारंभ ८ वे गुणस्थान से शमक साधक ने किया था उसकी समाप्ति - पूर्णता यहाँ ११ वे में हो जाती है । बस, यहीं इसका अन्त है । इस तरह उपशम श्रेणी ८, ९, १० और ११ इन ४ गुणस्थानों की रही । ज्ञानावरण - दर्शनावरण कर्म के आच्छादन - ढक्कन को “छद्म ” कहते हैं । अतः 'छद्मस्थ कहलाते हैं । ऐसे छद्मस्थ २ प्रकार के कहलाते हैं। एक तो १) सराग छद्मस्थ, और २) दूसरा वीतराग छद्मस्थ कहलाते हैं । ११ वे और १२ वे गुणस्थानवर्ती महात्मा वीतराग छद्मस्थ कहलाते हैं । ११ वे में मोह का उपशमन - शमन हो जाता है इसलिए भी वीतराग कहलाता है । और १२ वे गुणस्थान पर ... I . मोहनीय कर्म शमन के बदले क्षीण हो चुका है । जडमूल से क्षय हो चुका है अतः वीतरागता प्रकट हो जाती है। फिर भी छस्थ कहलाता ही है । क्योंकि छद्मस्थ ज्ञानावरणीय + दर्शनावरणीय कर्म के कारण है । आत्मा के आठ गुण मूल हैं। इन ८ मूलभूत गुणों पर ... जो ८ कर्म लगते हैं वे गुणों को ढकनेवाले आच्छादक- आवरक कहलाते हैं, जिस गुण का आवरक ढकनेवाला आध्यात्मिक विकास यात्रा ११६०
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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