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माध्यमों की आवश्यकता ही नहीं है । उसके लिए भाव ही प्रधान कारण है । जिस ज्ञानयोग से भाव बढे उसे ही अपनाते हुए आगे बढे । आखिर क्षपक श्रेणी आत्मावलम्बी है। आत्मगुणों, आत्मभावों पर आधारित है । और यदि प्राणायामादि जो कि काययोग है, मन भी तो जड है, फिर भी जड मन सूक्ष्मरूप से आत्मा के साथ जुडा हुआ है । उसे आत्मा के ज्ञानादि से जोडकर ज्ञान में पदार्थों के द्रव्यगुण–पर्यायों, उत्पाद–व्यय-धौव्यात्मक स्थितिरूप समस्त ब्रह्माण्ड रूप लोकस्वरूप के अनन्तानन्त पदार्थों का चिन्तन करके उनका ज्ञान प्राप्त करें । वास्तविक स्वरूप को आँखों के सामने स्पष्ट करता जाय । उससे फिर अर्थ से अर्थान्तर में, द्रव्य से द्रव्यान्तर में, गुण से गुणान्तर में और पर्याय से पर्यायान्तर में चिन्तन करता ही जाय।
अर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छब्दान्तरे च संक्रमः। योगायोगान्तरे यत्र, सविचारं तदुच्यते ॥६३ ॥ द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति, गुणाद्याति गुणान्तरं ।
पर्यायादन्यपर्यायं, सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥ ६४॥ . गुणस्थान क्रमारोहकार शुक्लध्यान में जो सविचार और सपृथक्त्व की प्रक्रिया में साधक ध्यानी क्या करता है उसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि- एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक शब्द से दूसरे शब्द में और एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है। उसे ही सविचार या ससंक्रमण ध्यान कहते हैं । पृथक्त्व की प्रक्रिया में एक द्रव्य से अन्य द्रव्य में, एक गुण से अन्य गुण में और एक पर्याय से अन्य पर्याय में पूर्वोक्त वितर्क का गमन होता है उसे सपृथक्त्व ध्यान कहते हैं। द्रव्य में जो सहभावी धर्म होता है, उसे गुण होता है। और उसी द्रव्य में जो क्रमभावी धर्म होता है उसे पर्याय कहते हैं । “वत्थु सहावो धम्मो" वस्तुमात्र का स्वभाव ही उसका धर्म है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ गुण-पर्यायात्मक ही होती है । गुणपर्याय द्रव्याश्रयी होते हैं । ये स्वतंत्र रह ही नहीं सकते हैं । द्रव्य के साथ ही रहते हैं । और प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रुव स्वभावी होता ही है । गुण–पर्याय का उत्पाद-व्यय होते हुए भी द्रव्य ध्रुव स्वरूपी तीनों काल में सदा अपना अस्तित्व रखता ही है। इस तरह गुण से गुणान्तर, पर्याय से अन्य पर्यायान्तर कब कैसे होता रहता है यह शुक्लध्यानी अपने ध्यान का विषय बनाकर पदार्थमात्र के स्वभाव की एवं स्वरूप की वास्तविकता समझकर उसमें से रागादि भाव सर्वथा निकालकर स्वयं अलिप्त बन जाता है। ऐसी ध्यानरूपी अग्नि कर्मों का ढेर का ढेर जलाकर राख कर देती है और आत्म शुद्धि होते ही आत्मा एक-एक सोपान विकास के ओर आगे बढ़ती है। अतः ध्यान
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आध्यात्मिक विकास यात्रा